इस समय दिल्ली में चर्चा है कि आखिर
दिल्ली सरकार राष्ट्रमण्डल खेल करा पायेगी या नहीं ? भाजपा जोर-शोर से यह साबित करने में लगी
है कि सरकार कैसे इन खेलों को आयोजित करने में नाकामयाब रही है। पूरे आयोजन को देश
की प्रतिष्ठा से जोड़ा जा रहा है। इसमें चूक को बेइज्जती से जोड़ा जा रहा है चारों
तरफ शहर को सजाया जा रहा है आरै दिल्लीवासियों को ”सुधारने“ की भी मुहिम चलाई जा रही है। मीडिया भी
इसी का प्रचार करने में जुटा है। आइये, इनसे जुड़ी कुछ बातों पर नज़र डालें।
कॉमनवेल्थ या राष्ट्रमण्डल क्य है ?
यह उन देशों का समहू है जो कभी
अंग्रेजों के गुलाम थे। इसकी स्थापना 1931 में हुई थी, उन देशों को लेकर जिन्होंने
अधीनस्थ सरकार या डोमिनियन स्टेट्स स्वीकारा था। इसका विकास पहले से जारी
साम्राज्यवादी सम्मेलनों से हुआ था। कांग्रेस व उसके नेताओं ने भी यही मांग रखी
थी। ’पूर्ण स्वराज्य’ तो मजबूरी
में कुछ समय के लिये आंदोलन व आलोचना के दबाव में माना गया था। इसकी स्थापना
वेस्टमिन्सटर विधान के अनुसार हुई तथा ब्रिटिश राजसिंहासन (ब्रिटिश क्राउन) से
निष्ठा इसका आधार था। 1949 में लंदन घोषणा में यह माना गया कि ब्रिटिश राजसिंहासन से जुड़ाव को
आधार माना जाये। आरम्भ में इसके सदस्य ग्रेट ब्रिटेन, आइरिश फ्री स्टटे , कनाडा, न्यू फाउण्ड लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड व दक्षिण अफ्रीका थे।
पचास के दशक से अंग्रेजों के गुलाम रहे देश इसके सदस्य बने। भारत सरकार ने भी इसका
सदस्य होना स्वीकार किया। आज इसमें 54 देशों हैं। इसकी मानद प्रमुख इंग्लैण्ड
की महारानी है तथा मुख्यालय लंदन में है।
यह उल्लेखनीय है कि इस बात का उस
समय के सभी देशभक्त व प्रगतिशील हल्कों ने विरोध किया था। प्रसिद्ध गीतकार मज़रूह
सुलतानपुरी ने एक नज्म लिखी थी जिसमें पक्तियां थीं :
खादी की केंचुल पहन आई है नागिन,
ये लहराने
न पाये,
मार ले
साथी जाने न पाये।
कॉमनवेल्थ
का दास है नेहरू,
और तबाही
लाने न पाये,
मार ले
साथी जाने न पाये।
इस नज़्म के कारण तत्कालीन बॉम्बे राज्य
के मुख्यमंत्रा मोरारजी देसाई ने उन्हें गिर तार कराया था और शर्त रखी थी कि यदि
वे माफी मांगें तो उन्हें छोड़ा जा सकता है। मजरूह ने कहा कि माफी मांगना विचारधारा
से समझौता होगा जो उन्हें मंजूर नहीं । अतः उन्होंने जेल जाना मंजूर किया। दूसरे
प्रसिद्ध जनकवि शंकर शैलेंद्र ने अपनी जानी-पहचानी कविता ‘भगतसिंह से’ में लिखा था-
मत समझो पूजे जायागे क्योंकि लड़े थे दुश्मन से,
रुत ऐसी है
आंख लड़ी है अब दिल्ली की लंदन से।
कॉमनवेल्थ
कुटुम्ब देशों को खींच रहा है मंतर से,
प्रेम
विभोर हुए नेतागण, रस बरसा है अम्बर से।
पर इस प्रकार के तमाम विरोधों के
वाबजूद भारत सरकार ने बेशर्मी के साथ राष्ट्रमण्डल में शामिल होना स्वीकार किया और
तमाम शासक वर्गीय पार्टियों ने चूं तक नहीं की जो सरकार व इन पार्टियों के दलाल
चरित्रा को दर्शाता है।
खेलों का इतिहास
हालांकि 1891 में ही अंग्रेजी साम्राज्य के
देशों के बीच खेलों के आयोजन की बात की गयी थी और रेवेरेण्ड एस्टले कूपर ने सुझाव दिया था कि हर
चार वर्ष में ऐसे उत्सव से अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति सद्भावना बढे़गी, पर पहली बार ऐसा औपचारिक आयोजन 1911 में जॉर्ज पंचम के राजतिलक पर ”साम्राज्य के उत्सव“ के रूप में किया गया और इसी में
अन्तर-साम्राज्य खेल प्रतियोगिता रखी गयी जिसमें चार देशां ने भाग लिया। 1930 में पहली बार कनाडा के हेमिल्टन
शहर में ”अंग्रेजी
साम्राज्य खेल“ आयोजित
किये गये। ये हर चार साल में आयोजित किये जाते रहे। केवल द्वितीय विश्वयुद्ध के
दौरान ये नहीं हो सके और 1950 में पुनः आयोजित किये गये। इसकी परेड का नेत त्व ब्रिटिश झण्डा ”यूनियन जैक“ लिए एक ध्वजवाहक करता था। इसीलिए
इसे ”अंग्रेजी
साम्राज्य व राष्ट्रमण्डल खेल“ नाम दिया
गया। 1958 से परेड का नेत त्व करते अगेंजी राजमहल-बकिंघम पैलेस-से महारानी का
सन्देश लिये एक छड़ी रिले (क्रमिक) रेस के माध्यम से सभी सदस्य देशां के प्रमुख
खिलाड़ियों द्वारा मेजबान देश तक लायी जाती है, जिसे मेजबान देश का कोई प्रसिद्ध खिलाड़ी
खेलस्थल तक ले जाता है।
1970 से इसके नाम से अंग्रेजी साम्राज्य हटा कर केवल ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल खेल रखा गया और 1978 से इन्हें राष्ट्रमण्डल खेल कहा जाने लगा। इसकी संरक्षक
हैं अंग्रेजी महारानी एलिज़बेथ और उपसंरक्षक हैं राजकुमार एडवर्ड (वेल्स के अर्ल - एक खास सामंती ओहदा)। इन खेलों
में सेना को ओलम्पिक खेलों से अधिक महती भूमिका दी जाती है जो कि ‘महान’ अंग्रेजी सेना के सम्मान में होता
है।
इस प्रकार संक्षिप्त इतिहास से ही
स्पष्ट कि राष्ट्रमण्डल व खेल दोनों ही देश की जनता की भावनाओं तथा सम्मान को परे
ख, बरकरार
गुलामी का ही प्रतीक है आखिर क्यों, अपने ऊपर बर्बर शासन करने वाले
अंग्रेजों द्वारा निदेशित संगठन में शामिल होना स्वीकार किया गया। शायद इन खेलों
के जरिये भारत सरकार और सभी ससंदीय राजनैतिक पार्टियां अंग्रेजों को दिखाना चाहती
कि किस प्रकार उनके गुलामों के वंशज नाचते, खेलते, कूदते हैं। और, हम किस तरह उनके पिछलग्गू हैं।
वर्तमान राष्ट्रमण्डल खेल 2010: आयोजन की भव्यता
वर्तमान खेल, जिन्हें सीडब्लूजी 2010 कहा जा रहा है, बड़े भव्य पैमाने पर आयोजित किये
जा रहे हो। इस पर सरकार के अनुमान के अनुसार सत्तर हजार कराडे रुपये खर्च किये जायेंगे जो कि
आरम्भिक अनुमानित रु 767 करोड़ रुपये
से कई गुना अधिक । अनौपचारिक अनुमान तो एक लाख करोड़ का है (जैसा कि समाजवादी
पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने संसद में कहा)। दिल्ली का कायाकल्प किया जा
रहा है। आयोजन की भव्यता का अनुमान इसके लिये हो रहे कार्यों से लग सकता है।
52 देशों की 71 टीमें इन खेलों में भाग लेंगी।
करीब 8000 खिलाड़ी व अधिकारी आयेंगे और 17 खेलों की प्रतियोगितायां में किस्मत
आजमायेंगे। इनके लिये 23 विश्वस्तरीय
स्टेडियम व 32 सर्वसुविधासम्पन्न
अभ्यास-स्थल बनाये गये हैं। (यह अलग बात कि कुछ अभी से चूने लगे और प्रतिष्ठा का प्रतीक जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम की
जमीन धंसने लगी)। 30,000 स्वयंसेवक कार्यरत होंगे। आवास के लिये सभी प्रकार के कुल मिला कर लगभग चालीस हजार
कमरे पूरी दिल्ली में उपलब्ध कराये जायगें। सभी देशों का लगभग 5000 मान्यता प्राप्त मीडिया रहेगा।
दिल्ली के सौंदर्यकरण के नाम पर
करोड़ों खर्च किये जा रहे हैं। दो पुराने बाज़ार - गाले मार्केट और कनॉट प्लेस - को
एकदम बदला जा रहा है और अनेक स्थानों को स्टोर किया जा रहा है। सड़कों का चौड़ाकरण, सुदृड़ीकरण और पुनःनिर्माण किया जा
रहा है। खेल के स्थलों से 2 किलोमीटर
के दायरे में सड़कों के इर्दगिर्द को सुंदर नाया जा रहा है अर्थात लोगों, दुकानों, रेड़ी-पटरी, झुग्गियों आदि को उजाड़ा रहा है। 26 नये फ्लाइओवर और 24 नये ओवरब्रिज व अण्डरब्रिज बनाये
जा रहे हैं।
मेट्रो की लाईन बिछाई गई है। लगभग
500
लो फ्लोर
बसें, 1000 वातानकुलित बसें और 574 बसें केवल खिलाड़ियों अधिकारियों व
मान्यताप्राप्त मीडिया के लिये चलेंगी।
खिलाड़ीयों के निवास के लिये एक
खेलगांव नाया गया है। यह अक्षरधाम मन्दिर के पास यमुना नदी के किनारे 158.4 एकड़ जमीन में जिसमें 1168 वातानकुलित फ्लैट्स होंगे जिन्हें बाद में
करोड़ों में बेचा जायेगा। सबसे सस्ते फ्लैट की कीमत 2.9 करोड़ रुपये है। यह गांव यमुना नदी
के किनारे बनाया गया है जहां पर्यावरणविदों के पुरजोर विरोध को नजरअन्दाज किया
गया।
सभी प्रकार के करीब चालीस हजार
कमरे अतिथियों के लिये उपलब्ध होंगे। इनमें निजी होटलों के अतिरिक्त बिस्तर-नाश्ता
(बेड ब्रेकफ़ास्ट) स्कीम, विभिन्न
एम्पैनल्ड (सूचीकृत) गेस्ट हाउस, जसोला व वसन्त कुंज के नवनिमिर्त आइटीडीसी द्वार सुसज्जित
डीडीए फ्लैट आदि शामिल हैं।
दिल्ली की जनता : विस्थापन, बेरोजगारी आरै तबाही का पैगाम
ये खेल दिल्ली की जनता के लिये
व्यापक तबाही का पैगाम लेकर आये हैं। जनता को भारी पैमाने पर बेघर, बेरोजगार किया जा रहा है।
ऐसा अनुमान है कि दस लाख से अधिक
लोग अलग-अलग समयों में विस्थापित किये जा चुके हैं। यह प्रक्रिया 2006 से चालू है। सरकार ने इस बार
व्यापक तोड़फोड़ न कर लम्बी समयावधि में धीरे-धीरे व अलग-अलग जगहों पर इस काम को
अंजाम दिया। इससे वह व्यापक जनाक्रोश से बच गयी। सामूहिक चेतना के अभाव में यदि
किसी झुग्गी कैंप का केवल कुछ भाग तोड़ा गया तो बाकी लोग नहीं बोले। चालीस हजार से
अधिक रिक्शा चालक, रेडी़
-पटरी वाले, कच्चे
दुकानदार अपनी आजीविका से हाथ धो बैठे हैं। इस पर तुर्रा यह कि कॉमनवेल्थ कमेटी
कहती है कि ’’यह
इंफ्रास्ट्रक्चर लोगों को अधिक आसानी से आवागमन करने देगा; अखिरकार लोगों को यही तो चाहिये।’’ किसे चाहिये ? ये ’लोग’ कौन हैं ? दिल्ली की आम जनता तो नहीं । उसकी कीमत
पर चंद लोगों को सुविधा का खेल क्यों? यह अपने-आप में सरकारों के वर्ग चरित्र
को उजागर कर देता है।
ऐसा घाेषित किया गया है कि खेलों
के दौरान दिल्ली में ब्लूलाईन बसें नहीं चलेंगी। वैकल्पिक व्यवस्था तो है नहीं , लोग कैसे काम पर जायेंगे ? सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं
है बल्कि वह तो इसी बहाने दिल्ली को खाली कराना चाहती है।
यही नहीं , जिन मार्गों से खेलों का कारवां
गुजरेगा वहां पर विशेष खेल लेन बनाई गई है, जिस पर चलने पर रु. 2000 का जुर्माना हो सकता है। जाम से
परेशान दिल्ली को और जाम में फंसाया जा रहा है।
दिल्ली के मेयर ने तो यह भी कह
डाला कि इस दौरान दिल्ली की फ़ैक्ट्रियां बन्द कर देनी चाहियें। बिना इस बात को जहन
में लाये कि ऐसा होगा तो मजदूर कहां जायेंगें ? फ़ैक्ट्रियों से सम्बंधित अन्य रोजगार
जैसे-टेम्पो, ट्रक
रिक्शा अदि से ढुलाई, चाय पान व
ढाबे कहां जाएंगें ? कौन उनके
परिवारों को पालेगा ? क्योंकि
इसमें मालिकों का भी नुकसान है और व्यापक विरोध की आशंका से ऐसा औपचारिक आदेश तो
नहीं आया है पर इसका लाभ उठा कर मालिक लोग मजदूरों में दहशत फैला कर अपने काम
निकलवा रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने भी यहां तक कह
दिया कि दिल्ली में जितने भिखारी हैं उन्हें उनके मूल स्थान (गांव) में छोड़ आया
जाये। इस पर टिप्पणी करते हुए जस्टिस शाह ने कहा कि भिक्षावृत्ति खत्म करने के
लिये जरूरी है कोई भीख न मांगे और किसी को भीख मांगने की जरूरत न पड़े। ऐसा लगता है
कि सरकार दूसरा अधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य भूल गयी है।कृ दिल्ली प्रवासियोंका शहर
है जहां पर सत्तर प्रतिशत से अधिक जनता शहर के बाहर की है वहां ऐसा निर्णय
अजीबोगरीब है। हालांकि दिल्ली सरकार ने बाद में इस काम में अपनी असमर्थता जताई और
दिखावे के लियेष्शेल्टर बनाये जो न तो संख्या में पूरे हैं और न ही सुलभ हैं। इन
नीतियों से कितने और लोग भिखारी बनने को मजबूर होंगे यह भी ठीक नहीं है।
केवल मजदूर ही नहीं इसका दंश
छात्रों को भी झेलना पड़ रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने होस्टल खाली कराने
के आदेश दे दिये हो। करीब 2000 छात्रा इससे प्रभावित होंगे। होस्टलों को पुनर्निर्मित (रिनोवेट)
किया जा रहा है ताकि उनमें खेल के अतिथि ठहर सकें। इसके लिये विश्वविद्यालय ने
सरकार से 20 करोड़ रुपये
लिये हो। इससे छात्र आखिर किराये पर रहने को मजबूर हांगे और लाचारी में ज्यादा
किराया देंगे।
जन कल्याण बनाम खेल खर्च
खेलो पर होने वाले खर्च का अनुमान
तो हमने देखा। यह विशाल धनराशि तो चंद दिनों के लिये है पर जनता के कल्याण के लिये
धन का अभाव है। राशन व्यवस्था ठप्प की जा रही है, सब्सिडियां खत्म हो रही हैं, रोजगार लगातार कम हो रहे हैं।
सरकारी स्कूलों की स्थिति लगातार खराब हो रही है, अस्पतालों के लिये संसाधनों का टोटा है, सभी को पीने का पानी तो छोड़ो
साधारण पानी भी बमुश्किल मिलता है, जरा-सी भी बारिश से सड़कें नहर बन जाती
हैं, साधारण
बीमारी महामारी का रूप धारण कर लेती है। सरकार अपनी जिम्मेदारियां लगातार निजीकरण
कर बेच रही है क्योंकि घाटा है, पर 12 दिन के
खेलों के लिये सब कुछ है। दुष्यंत कुमार की चंद पंक्तियां याद आती हैं -
’’यहां तक आते-आते दरिया सारे सूख
जाते हैं, हमें मालूम
है पानी कहां पर रूक रहा होगा’’
आईसीआरए के जोसफे एंथनी के अनुसार ’’भारत जैसे देशों में जहां चालीस
करोड़ लोग एक डॉलर (लगभग 45 रुपये)
प्रतिदिन कम पर पर गुजारा करते हैं, क्या इतना खर्चीला आयोजन नैतिक और
न्यायसंगत है ? खेलों पर
इतना भीषण खर्च भारत सरकार की प्राथमिकताओं पर ही प्रकाश डालता है।’’
पर्यावरण के पुरोधा भी अनेक जगह
चुप हैं। खेलगांव बनाने के लिये अनके विरोधों को दरकिनार किया गया। दिल्ली
विश्वविद्यालय में विरोध के वावजूद पेड़ काटे गये। अनेक जगह मेट्रो लाईन भी इसी तरह
बनी। पर्यावरण की चिंता में दिल्ली से फैक्ट्रियां उजाड़ लाखों लोगों को बेरोजगार
करने वाले एनजीओ, पर्यावरणविद
व कई बार स्वयं संज्ञान लेने वाले सुप्रीम कोर्ट भी अंधे-बहरे बने रहे।
खेलों के प्रोजेक्ट्स में मजदूरों
की स्थिति
यही नहीं , इन बहुप्रचारित ’’देशों की शान’’ हेतु विभिन्न प्रोजेक्टों में काम
कर रहे मजदूरों की हालत बहुत ही दयनीय है। अनेक रिपोर्टों के अनुसार न्यूनतम श्रम
कानून तो दूर की बात है, वे मानवीय
हालात में काम भी नहीं करा रहे हैं। व्यापक गैरकानूनी ठेकेदारी है, खतरनाक परिस्थितियों में काम करने
पर भी कोई सुरक्षा उपाय नहीं है।
विभिन्न निर्माण कार्यों में
अनुमान है कि लगभग चार लाख लोग काम करने के लिये दिल्ली आये हैं। बहुत-से लोग अपने
परिवारों को भी लाने को मजबूर हुए हैं क्योंकि गांव में देखभाल करने वाला कोई नहीं
है। इस प्रकार हजारों की संख्या में बच्चे दिल्ली की सड़कों पर पड़े हैं क्योंकि
उनके मां-बाप इन खेलों के लिये भवन, मेट्रो आदि बना रहे हैं। आइसीआरए के
अनुमान से कम से कम दस हजार बच्चे दिल्ली में आये हैं आरै दयनीय हालात में रहने को
मजबूर हैं।
हाउसिंग़ एण्ड लैंड राइट्स नेटवर्क
(एच. एल.आर.एन) द्वारा जारी रिपोर्ट ’’द कॉमनवेल्थ गेम्स 2010ः हूज वेल्थ ? हूज कॉमन ?’’ में बताया गया है कि अकुशल कामगार
को रु. 85 से 100 तक ही दिया जा रहा है और कुशल
कामगार को रु. 120-130 अर्थात न्यूनतम वेतन भी नहीं । रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि
इनमें एक तिहाई से अधिक महिलाएं हैं और उन्हें साधारणतः पुरुषों से कम वेतन मिलता
है। पीयूडीआर की रिपोर्ट में बताया है कि 49 मजदूर विभिन्न साईटों पर मारे गये हैं
और कामगारों को अंतर्राज्यीय प्रवासी कामगार कानून का लाभऽभी नहीं मिलता।
संयुक्त राष्ट्र में भारत की
भूतपूर्व राजदूत अरुन्धति घोष ने भी मजदूरों की बदहाली की पुष्टि की है। वे कहती
हैं-’’हमने
राष्ट्रमण्डल खेलां की विभिन्न साइटों का दौरा किया और अनेक कानून जैसे भवन व अन्य
निर्माण कामगार कानून, न्यूनतम
वेतन अधिनियम, माईग्रेंट
वर्कर्स एक्ट आदि के संदर्भ में जांच की। अधिकांश ठेकेदार मौजूदा कानूनों का खुला
उल्लंघन कर रहे हैं।’’
हालांकि अहलूवालिया कॉण्ट्रैक्ट्स
के सीईओ अरुण सहाय (जिनके पास खेलगांव का प्रोजेक्ट है) ने इस बात को नकारा है पर
कॉमनवेल्थ ऑर्गेनाईज़िंग कमेटी के महासचिव लित भनोट द्वारा पत्राकारों को प्रोजेक्ट
साईटों पर जाने से रोकना अपने आप में ही एक जवाब है। प्रतिष्ठा के प्रतीक जवाहरलाल
हरु स्टेडियम के बाहर मजदूरों ने बताया कि वे जला देने वाली गर्मी में भी तिरपाल
के तम्बुओं में रहे हैं। कह पर पर्याप्त शौचालय भी नहीं हैं और हैं भी तो बेहद
गंदे।
न केवल न्यूनतम वेतन नहीं मिलता, वेतन भुगतान भी समय पर नहीं होता।
ठेकेदार आज-कल करते हुए हफ्तों निकाल देते हैं और लोगों को खाने के भी लाले पड़
जाते । जुलाई में तो तीन महीने तक वेतन न भुगतान होने पर मजदूरों ने हड़ताल की थी।
आंशिक भुगतान और ठोस आश्वासन के बाद ही वे काम पर गये।
किसकी दिल्ली ? किसका विकास ? किसका भला ?
अब प्रश्न यह है कि आखिर यह शहर
किसका है ? क्या
दिल्ली की लगभग दो तिहाई जनता गिनती के योग्य भी नहीं है ? या मुट्ठीभर लोग ही दिल्लीवासी
हैं ? जिनके
हाथों से यह शहर ज़िंदा है उनका इस शहर की योजनाओ में कोई स्थान नहीं है ? जिनके हाथ अगर काम करना बंद कर
दें तो न तो कोई फैक्ट्री चलेगी, न दफ्तर; सड़कें थम जाएंगी और कोठियां नहीं चमचमाएंगी। न कपड़े प्रेस
होंगें न स्कूल चलेंगे। और तो और, ये खेल भी नहीं हो पाएंगे। उन लोगों को इन खेलों और तथाकथित
विकास से क्या मिल रहा है ? मेट्रो, चौड़ी सड़कें, एक्सप्रेसवेज़, फ्लाईओवर, लो- लोर एसी बसें आदि किनके लिये ? ज़ाहिर बात है आम आदमी के लिये तो
नहीं हैं। आम आदमी को तो इस तथाकथित विकास का दंश ही झेलना पड़ता है। दिल्ली की इस
कायाकल्प से आम आदमी को असुविधा और बदहाली के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
शायद दिल्ली को औद्योगिक शहर से
पूर्ण व्यावसायिक शहर बनाने की मुहिम को इससे अच्छा बहाना और कहां मिलेगा ? आज दिल्ली की सफाई के नाम पर बड़ी
संख्या में जनता को ही गंदगी मानकर बाहर फेंका जा रहा है।
दरअसल, इस आयोजन से पूंजीपतियों का
मुनाफा जुड़ा हुआ है। निर्माण (भवन, सड़क, पुल, मेट्रो आदि) परिवहन, होस्पिटॅलिटी (होटल, भोजनालय, भ्रमण-पर्यटन आदि), विज्ञापन, चिकित्सा (इसमें विलासितापूर्ण
चिकित्सा जैसे लग्जरी व गुड लिविंग मेडिसिन भी शामिल हैं), सेवा क्षेत्रा आदि इसमें अकूत
मुनाफा लूटेंगे। यही नहीं, भारत में
गैरकानूनी व्यवसाय वेश्यावृत्ति भी पनपेगा। एक साल पहले ही साइटें बन गई हैं
बुकिंग के लिये।
लाभांवित होने वाले पूंजीपति
इसमें ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं और सरकारी तंत्र कमीशन खाने में।
क्या खेलों का विकास होगा ?
यदि खेलों की ही बात की जाये तो
यह बात काबिलेगौर है कि 1982 में एशियाई खेलो के समय भी यही कहा गया था कि इससे देश में खेलों का
विकास होगा। पर हुआ क्या ? क्रिकेट को
छोड़ कर शायद ही किसी खेल पर ध्यान दिया गया होगा। 1982 से पहले एथलेटिक्स (दौड़-कूद आदि) में
भारत एशिया के स्तर पर कुछ था भी अब तो वह भी नहीं रह गया है। जवाहरलाल नेहरू
स्टेडियम में बाद में क्रिकेट के दिन-रात के मैच होने लगे। इंद्रप्रस्थ स्टेडियम
(बाद में इंदिरा गांधी स्टेडियम) में संगीत आदि के कार्यक्रम होने लगे। यमुना
वेलोड्रोम के बाद भी साईकल-चालन में कुछ भी उपलब्धि नहीं । घाेषित राष्ट्रीय खेल
हॉकी में भारत लगातार पिछड़ता ही रहा पर उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यहां तक कि
विश्व कप से पूर्व हॉकी खिलाड़ियों को अपने वेतन के लिये हड़ताल करनी पड़ी। इन
स्टेडियमों का रखरखाव ही एक बोझ बन गया है। स्थिति इससे भिन्न नहीं होने वाली।
भ्रष्टाचार
इतने बड़े आयोजन में भ्रष्टाचार न
हो तो यह अनहोनी ही होगी। इस आयोजन में भ्रष्टाचार की खबरें कुछ माह पूर्व आने लग
। कुछ समय मीडिया ने इसे बड़ी तरजीह दी। पहले नानुकुर के बाद सरकार भी मानने को
मजबूर हुई। सुरेश कलमाडी घेरे में आये। दरअसल भ्रष्टाचार था ही इतना व्यापक व
निर्लज्जतापूर्ण कि पूरा पर्दा नहीं डाला जा सका। यहां पर कुछ बानगी ही काफी हैं
सुरेश कलमाडी के निकट सहयोगी संजय
महेंद्रू ने टैक्सी के रेट फिक्स कराये। इंग्लैण्ड की एक अनजानी-सी कम्पनी ए.एम.
कार्स को न केवल चुना गया बल्कि बिना किसी लिखित समझौते या कॉण्ट्रैक्ट के उसे
लगभग दो लाख पाऊंड्स का भुगतान भी कर दिया गया।
अनेक उपकरणों को अत्यंत मंहगे
दामों में खरीदा गया जैसे ट्रेड मिल रु. नौ लाख, एयर कण्डिशनर रु. चार लाख, व्हील चेयर रु. 98000, टॉयलेट पेपर रु. 3757, छाते रु. 6000 प्रति पीस आदि। तर्क यह कि ये
बढे़ दाम मैनेजमेंट कॉस्ट के कारण हैं। उदाहरण बहुत से हैं।
इस मुद्दे पर प्रधानमंत्रा लाल
किले से घोषणा करते हैं कि ये खेल तो गर्व का विषय हैं आरै राष्ट्रीय पर्व हैं; पहले इन्हें सफलतापूर्वक सम्पन्न
करें बाद में जांच कर लेंगे। ऑक्सब्रिज बुद्धिजीवियों, जो राज की स्तुति करने में खुद को
धन्य समझते हैं, को तो यह
गर्व की बात लगेगी ही क्योंकि चाटुकारिता का एक और मौका मिला। और भ्रष्टाचार के
विराट मौके तो शासक वर्गीय पार्टियों के लिये पर्व हैं ही।
यह सारा पैसा जनता का है जो उससे
विभिन्न मदों के करों के रूप में उगाहा गया है। इससे जनता का विकास करने की बजाय
वे अपने पेट के विकास में खर्च कर रहे हैं। जनता को एक-एक पैसे का हिसाब दिया जाना
चाहिये।
मीडिया की भूमिका
मीडिया जहां केवल आयोजन की भव्यता
का गुणगान, उसमें
खामियां और अधिक से अधिक भ्रष्टाचार पर ही केंद्रित है, जनता की बदहाली उसे नजर नहीं आई।
आई भी तो बिकाउ व सनसनीखेज खबर न होने के कारण इसे तव्वजो नहीं दी गयी। इस प्रकार
केवक एक पक्ष ही रखा गया। मीडिया ने अपने चरित्र के अनुरूप राय बनाने के काम को
निभाया, सत्य को
सामने लाने को नहीं ।
किसका गर्व ? कैसा गर्व ?
साथ ही एक झूठी अंध देशभक्ति की
भावना का प्रचार किया जा रहा है मानो ये खेल देश की प्रतिष्ठा से जुडे़ं हों। जबकि
संक्षिप्त इतिहास से हमने देखा कि ये तो देश की गुलामी का गौरवगान हैं। आश्चर्य है
कि इस सरकार को इस बात पर शर्म नहीं आती कि लोग भूखे सोते हैं, अमानवीय स्थितियों में कुत्ते की
तरह रहने को मजबूर हैं, वह अपने
द्वारा बनाये गये कानून (विशेषकर श्रम कानून व अन्य जन कल्याण कानून व योजनायें)
को लागू नहीं कर पा रही है, लोगों को
उचित या कैसा भी रोजगार नहीं मिलता, स्कूलों में ढंग से पढ़ाई नहीं होती।
व्यापक भ्रष्टाचार लोगों को कल्याणकारी योजनाओं से दूर रखता है, पुलिस द्वारा झूठे केसों में
लोगों को यूं ही फंसाया जाता है, दिल्ली लड़कियों के लिये बेहद असुरक्षित शहर है-शायद यह सब उनके
लिये गर्व का विषय होगा। चंद दिनों के उन विदेशी मेहमानों से वास्तविकता छिपाकर
उनकी सुविधाओं को तथाकथित विश्वस्तरीय बना कर ही इनके लिये देश को इज्जत मिलेगी।
चाहे इससे जनता से कोई भी कीमत वसूलनी पड़े। इस शहर को तथाकथित सुंदर बनाने के लिये, मुट्ठी भर लोगों के पहले से ही
विलासितापूर्ण जीवन को और सुविधासम्पन्न बनाने के लिये लोगों से उनका निवाला, घर, भविष्य और यहां तक कि उनका जीवन भी कीमत
में वसूला जा रहा है। अंत में फैज़ अहमद फैज़ की बरसों पहले लिखी पक्तियां बरबस याद
आती हैं :
इन दमकते हुए शहरों की ये फरावां
मख़लूक¹
क्यों फकत मरने की हसरत में जिया
करती है। ये हंसी खेत फटा पड़ता है जौबन जिनका, किनके लिये इनमें फकत भूख उगा करती है।