जब
से आप सरकार ने सत्ता संभाली है, कुछ क्षेत्रों को लेकर लगातार प्रचार कर रही है कि
उसने इनमें बहुत सुधार किये हैं,
शिक्षा उनमें से एक है। दिल्ली के स्कूलों में सुधार का प्रचार लगातार प्रिंट मीडिया व बड़े बड़े होर्डिंगों द्वारा
ऐसे किया जा रहा है कि मानों सरकारी
स्कूल अब एक आदर्श स्कूल बन गयें हैं। अनेक प्रगतिशील व जनपक्षीय लोग भी इसके कसीदे
पढ़ रहे हैं। आइए जरा इसकी पड़ताल करते हैं। पीडीएसयू॰ ने सागरपुर के दो स्कूलों में शिक्षा व छात्रों की दशा का विस्तृत
अध्ययन किया। उसकी रिपोर्ट दिल्ली शिक्षा निदेशायल की वेबसाइट के आंकड़े इस पड़ताल का
आधार है।
स्कूल
शिक्षा में किये गये प्रमुख बदलावों में एक है, छात्रों को विभिन्न समूहों में बांटना।
कक्षा 6 से लेकर 8 तक के सभी बच्चों को सरकार ने आते ही तीन समूहों में बांट दिया-
विश्वास, निष्ठा व प्रतिभा। कम अंक वाले बच्चे विश्वास, उनसे बेहतर बच्चे निष्ठा व
उपरी कुछ बच्चे प्रतिभा में बांटे गये। इनके अलग सेक्शन भी कर दिये गये व अलग अध्यापक
भी। कारण बताया गया कि इसे निष्ठा
व विश्वास समूह में विशेष ध्यान दे कर उन्हें सुधारा जाएगा। हांलाकि बाद में विश्वास
को निओ निष्ठा कहा गया और उसके पश्चात इन दोनों का भी विलय कर दिया गया।
इससे
में कई समस्यायें खड़ी हुई हैं। एक, तो ये पहले से होते भेदभाव को और बढ़ाता है। वैसे
ही सरकारी स्कूलों में केवल वो ही बच्चे आ पाते हैं जिनके माँ-बाप महंगे प्राइवेट स्कूलों
का खर्च वहन
नहीं कर सकते। अर्थात पहले से ही योग्यता के आधार पर नहीं पर आर्थिक क्षमता के आधार
पर भेदभाव है और आर्थिक रूप से अक्षम बच्चे सरकारी स्कूलों ही पढ़ते हैं और ऐसे बच्चे
बहुतायत हैं। अब यहां पर भी बच्चों को अलग अलग समूहों में बांट कर इसे और बढ़ा दिया
गया है। ये बाल मनोविज्ञान को नजरांदाज कर ये वर्गीकरण किया गया है। इस के लिये बच्चों
का हिंदी व अंग्रेजी लेखन व पठन क्षमता की परीक्षा ली जाती है। हर वर्ष अलग स्तर पर(
6 में अलग, 7 में अलग व 8 में अलग)। उस आधार पर से सेक्शन तय होते हैं। जो बच्चे पिछड़े
हैं उनमें और हीन भावना पैदा की जा रही है। एक ही स्कूल में, एक ही जगह के बच्चे में
से कुछ अपने को बेहतर समझते हैं
व कुछ हीन। कमजोर बच्चे सदा के लिये कमजोर ही रह जातें हैं। वे एक दूसरे से आंख मिला
कर बात नहीं कर पाते क्योकिं उन पर ठप्पा लग गया है।
दूसरे
इसके घोषित उद्देश्य भी कहीं पूरे होते नजर नहीं आते। नीचे की तालिका देंखे। इसे स्पष्ट है कि इस वर्गीकरण से कोई लाभ नजर नहीं आता। अनुमानतः कक्षा 6 के बाद प्रतिभा के छात्रों की संख्या बढ़नी
चाहिये थी, पर ऐसा नहीं हो रहा है बल्कि ये संख्या या तो लगभग स्थिर है या निष्ठा में
बढ़ोतरी हुई है। झुग्गी बस्ती व मजदूर बस्तियों के निकटवर्ती स्कूलों की स्थिति तो और
भी भयावह है। यहां पर कई जगह प्रतिभा सेक्शन ही नहीं बन पाया है य बहुत ही छोटा है।
इस योजना तीन वर्ष पूरे होने के बाद भी।
स्कूल
1
|
स्कूल
2
|
|||
कक्षा
|
प्रतिभा
|
निष्ठा
|
प्रतिभा
|
निष्ठा
|
6
|
166
|
157
|
82
|
167
|
7
|
150
|
149
|
52
|
184
|
8
|
83
|
172
|
53
|
183
|
केवल
सेक्शन ही अलग नहीं है बल्कि पाठ्यक्रम व परीक्षा भी अलग है। निष्ठा के छात्रों के
लिये पाठ्य पुस्तकों में से अनेक पाठ हटा दिये गये हैं। अतः इन्हे पढ़ाया भी कम जाता
है। इनके लिये अलग पुस्तक भी प्रयोग में लाई जाती हैं। जिन्हे ‘प्रगति’ पुस्तक का नाम दिया गया है।
ये मूलतः क्रियाकलाप पुस्तक (वर्कबुक या एक्टिविटी बुक) हैं। अर्थात न केवल कम पाठ्यक्रम
बल्कि पुस्तकें भी बेहद हल्की। यह भी दीगर है कि ये पुस्तकें एक एन॰जी॰ओ॰ ने सर्वप्रथम
प्रकाशित की थीं अब उसी एन॰जी॰ओ॰ की पुस्तकें पूरे दिल्ली के स्कूलों में पढ़ाई जाती
हैं अतः उस एन॰जी॰ओ॰ व प्रकाशक का लाभ तो देखा ही जा सकता है। इनकी परीक्षा भी इसी
कमतर पाठ्यक्रम में से होती है। अतः स्पष्ट है कि बच्चे पास तो हो ही जायेंगे पर प्रतिभा
व निष्ठा की शैक्षणिक योग्यता भिन्न होगी। जब 8वीं के बाद वे एक समान परीक्षा में बैठेंगे,
तो जाहिर है
वे पीछे रह जायेंगे। साथ ही जो पाठ वे नहीं पढ़े हैं उन में उनका आधार ही नहीं बना होगा
तो स्पष्टतः वे आगे के पाठ्यक्रम को नहीं समझ पाएंगे क्योंकि आगे के पाठ्यक्रम तो यह
मान कर तैयार किया जाता है कि पूछे के सभी पाठ बच्चों ने समझ लिये हैं। इस कारण ये
सदैव पिछड़े ही रह जांएगे। ये छात्र हीन भावना से ग्रस्त व आत्मविश्वास में कम रहेंगे।
दूसरा
बदलाव किया गया है कि 9वीं के बाद एक उच्च्तम आयू सीमा बना दी गई है। साथ ही जो बच्चे
कक्षा 9 में फेल हो गये थे उन्हें जबरन ही नियमित स्कूल से हटा कर ‘पत्राचार’ में डाला
गया है। इन छात्रों य इनके मां बाप को ठीक से बताया भी नहीं जाता और इन्हे कहा जाता
है कि एक नया फॉर्म भरना है और छात्रों को स्कूल में कक्षा 9 में बैठने दिया जाता है,
पर पत्राचार में उन्हें कक्षा 10 की परीक्षा दिलाई जाती है। जाहिर है कि जो बच्चे नियमित
स्कूल के बाद कक्षा 9 में पास नहीं हो पाये, जब उन्हें पुनः 9 में बैठा कर सीधे 10वीं
की परीक्षा दिलाई जाती है तो परिणाम भयावह ही होंगे। 2017 में कुल परिणाम 4 प्रतिशत
रहा, और अनेक स्कूलों में तो शत प्रतिशत छात्र फेल हो गये। अब ये बच्चे नियमित स्कूल
के छात्र नहीं रहे। इन्हे पुनः दाखिले के लिये पत्राचार से टी॰सी॰ लेना होगा व स्कूल
में पुनः आवेदन करना होगा। इन्हे कक्षा 10 में प्रवेश नहीं मिल सकता, व 9 के लिये अधिकांश
आयु अधिक हो गई। इस प्रकार ये बच्चे नियमित स्कूल व्यवस्था के बाहर हो गये। ये भी समझने
योग्य बात है कि अनेक मजदूर वर्ग ने छात्र बार बार अपने पैतृक गांव जाने के कारण आयू
के हिसाब से सही कक्षा में नहीं बैठ पाते। इसलिये ये अधिकतम आयु से जल्द ही बाहर हो
जातें हैं। 10वीं का परिणाम प्रत्यक्ष ही बेहतर होगा क्योंकि सरकार ने 9वीं में ही
छटांइ कर दी। इसी परिणाम पर शिक्षा मंत्री, सरकार अपनी ही पीठ बारम्बार ठोकते रहते
हैं।
अब
10विं के परिणाम पर थोड़ा और नजर डालते हैं। तालिका से स्पष्ट है कि 2013 से लेकर
10वीं के छात्रों की संख्य में लगातार गिरावट आई है। जो उपर दिये गये विश्लेषण की पुष्टि
करता है। और 2018 में परिणम में भी केवल 68.90 प्रतिशत। और यदि कुल छात्रों की संख्या
देखी जाये तो और भी कम। 2013 में पास हुए छात्रों का केवल 47.83 प्रतिशर यानि आधे से
भी कम। 2017 में भी यह केवल 72 प्रतिशत ही था। क्योंकि छात्रों की पहले छंटनी कर दी
गई है तो प्रतुशत अलग दिखता है। ये शिक्षा मंत्री के फिनलैण्ड दौरे व उसके बाद चुने
हुए शिक्षकों को फिनलैण्ड में प्रशिक्षण के बाद। शिक्षा बजट कहां खर्च हो रहा है इसका
भी संकेत मिल रहा है।
वर्ष
|
कुल
छात्र
|
पास
प्रतिशत
|
पास छात्र
|
2013
|
197934
|
99.46
|
196858
|
2014
|
180203
|
98.81
|
178067
|
2015
|
140086
|
95.81
|
134223
|
2016
|
140638
|
89.25
|
125526
|
2017
|
155263
|
92.44
|
143525
|
2018
|
136663
|
68.90
|
94160
|
इसी
प्रकार 12वी का परिणाम भी रोचक तथ्य उजागर करता है। 12वीं का परिणाम लगातार 10वीं से
खराब है। जबकि यदि 2 वर्ष पूर्व के दसवीं में बैठे बच्चों से तुलना करे तो 2015 से
संख्या भी लगातार कम हो रही है, जो कि इस व्यवस्था के प्रभाव के वर्ष हैं।
वर्ष
|
कुल छात्र
|
पास प्रतिशत
|
दो वर्ष पूर्व 10वीं में छात्र
|
अंतर कुल व प्रतिशत
|
2013
|
139003
|
88.65
|
||
2014
|
166257
|
88.67
|
||
2015
|
140191
|
88.11
|
||
2016
|
131354
|
88.91
|
||
2017
|
121681
|
88.27
|
140086
|
18405 (13.13)
|
2018
|
112826
|
90.64
|
140638
|
27812 (19.77)
|
दिल्ली
सरकार ने केवल एक प्रकट काम किया है वह है नई इमारतों का निर्माण। हांलकि अनेक जगह
अनावश्यक रूप से कमरे बनाये गये हैं वहीं कहीं पुरानी जर्जर व कम क्षमता वाली इमारतों
को बदल कर नई इमारतों का निर्माण किया है। पर जाहिर है इमारतें छात्रों को नहीं पढ़ा
सकतीं। इमारतें बनने के बाद भी अनेक बुनियादी सिविधायें नहीं हैं। छात्रों द्वारा इस्तेमाल
किये जाने वाले शैचालय में स्वच्छता का कोई दुरुस्त प्रबंध नहीं है। एक कमरे में क्षमता
से अधिक बच्चे डाले जाते हैं। दो छात्रों की डेस्क पर तीन से चार छात्र बैठा दिये जातें
हैं। वो लिख भी नहीं पाते। नई इमारतें की जगह चूने लगीं हैं। एक स्कूल में एक छत चूती
थी, जिसकी मरम्मत की बात की गई तो पूरे स्कूल की छतों कॉ बदलने का टेण्डर पास करा दिया
गया और सभी छतों का पुनर्निर्माण कर दिया गया। नतीजन अब चार छतें चूती हैं। निर्माण व मरम्मत कार्य
में सरकारी अमलों में व्याप्त भ्रष्टाचार से सभी वाकिफ हैं।
छात्र शिक्षक अनुपात में कोई बदलाव नहीं है। जैसा
कि ऊपर डेस्क के संदर्भ में लिखा गया है, वही बात इस अनुपात पर भी लागू होती है। आदर्श
रूप से एक शिक्षक के पास 20 से 35 छात्र होने चाहिये, पर अमूमन 60 से 100 छात्र होतें
हैं, और इस दिशा में प्रयास के कोई आसार नहीं दिखते। इतने छात्रों को कैसे पढ़ाया जाएगा,
कैसे वे शिक्षक की बात सुनेंगे इस ओर कोई सोच सरकार की नजर नहीं आती। कई विषयों के
शिक्षक हैं ही नहीं, कुछ जगह एक ही शिक्षक को उनका विषय दो विद्यालयों में पढ़ाने की
जिम्मेदारी दे दी जाती है। इसके असर की व्याख्याअ की आवश्यकता नहीं है।
सभी
स्कूलों में 8वीं कक्षा तक मिड डे मील दिया जाता है। इसके ठेके अनेक एन॰जी॰ओ॰ को दिये
गये हैं। इसकी गुणवत्ता पर कई बात प्रश्नचिन्ह लग चुका है। अनेक बार बच्चे बीमार भी
हुए हैं। पर इसमें कोई सुधार नहीं हुआ। इसका असली समाधान स्कूल के निकटवर्ती इलाकों
की महिलायों खाना पकाने का काम दिया जाए व प्राध्यापक सहित सभी शिक्षक छात्रों के साथ
भोजन करें तो ही हो सकता है। इससे स्थानीय महिलाओं को रोजगार भी मिलेगा व सुधार भी होगा।
शिक्षा
अधिकार अधिनियम के तहत एक स्कूल मैनेजमेण्ट कमेटी (एस॰एम॰सी॰) बनाना जरूरी है, जिसमें
स्थानीय विधायक भी होगा व स्थानीय लोग चुने जायेंगे। पर इसमें विधायक के स्थानीय आदमी
होते हैं जो इलाके के दबंग हैं। वे बिना स्कूल व शिक्षा की समस्याओं को जाने समझे शिक्षकों
व छात्रों पर दादागिरि करते हैं।
उपरोक्त
रिपोर्ट से हम देख सकते हैं कि पूरे स्कूल व्यवस्था एक प्रकार से तबाह ही कर दिया गया
है| दिल्ली के आम बच्चे, जो मजदूर वर्ग, निम्न वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग से आते हैं,
उनके लिये शिक्षा और बेकार हो गई है। पहले से ही अच्छी शिक्षा पर उच्च वर्ग का आधिपत्य
था जो अपने बच्चों को मंहगे प्राइवेट स्कूलों में भेज सकते हैं, और बाकी बच्चों के
लिये सरकारी स्कूल थे, जहां योग्य शिक्षक होने के बावजूद भी सुविधायों व उचित माहौल
के अभाव में शिक्षा का स्तर ठीक नहीं होगा था व यहां से पढ़ कर निकले बच्चे प्राइवेट
स्कूल से निकले बच्चों के समक्ष पीछे रह जाते थे। पर अब सरकारी स्कूल के भीतर ही भेदभाव
को बढ़ावा दिया जा रहा है। जो बच्चे निष्ठा में हैं उन्हें कमतर पढ़ाया जाता है और हल्की
परीक्षा ली जाती है। उनका आधार ही कमजोर बना दिया जाता है। अर्थात,
अब वे बच्चे निष्ठा में ही रहने को या दूसरे शब्दों में पिछड़े ही रहने को अभिशप्त हैं।
आगे जब वे उच्च कक्षाओं में जायेंगे तो जाहिर है कि वे प्रतिभा वाले बच्चों के साथ
मुकाबला नहीं कर पायेंगे और आगे बढ़ ही नहीं पायेंगे। 9वीं के बाद और फिर 10वीं में
जब बोर्ड की परीक्षा होगी, तब इनके प्रदशन का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रकार
एक ही जगह के बच्चों में अच्छे व खराब में बटवारां कर दिया गया है, और केवल कुछ का
ही आगे जाने का रास्ता प्रशस्त किया जा रहा है।
इसी
कड़ी में दिल्ली में 5 ‘स्कूल्स ऑफ एक्सीलेंस’ बनाये गये हैं जिनमें प्रति कक्षा में
केवल दो सेक्शन होंगे। आम तौर पर 8 से 10 सेक्शन तक होते हैं। कक्षा एक से आठ तक
25 बच्चे व 9 व 11 में 40 बच्चे प्रति सेक्शन होंगे। इनका दाखिला प्रवेश परीक्षा से
होगा व ‘नेबरहूड पोलिसी’ का पालन नहीं होगा। यानि इलाके के बाहर के लोग भी इसमें आ
सकते हैं। ये बच्चों में एक नये प्रकार का भेद भाव पैदा करेगा। दिल्ली के गिने चुने
बच्चे अच्छी शिक्षा के हकदार होगें। यानि कुछ ही बच्चों को आगे बढ़ने का मौका (दिल्ली
में 9वीं के बाद केवल 400 बच्चे)। असमान शिक्षा नीति में एक स्तरीकरण और बढ़ाया जा रहा
है वो भी सरकारी स्तर पर नीतिगत रूप से।
दूसरे
बच्चों के एक बड़े भाग को स्कूल व्यवस्था से ही बाहर कर दिया गया है। जो बच्चे कक्षा
9 में एक बार फेल हो गये हैं (अनेक जगह जैसे मदनपुर खादर, सरिता विहार, जैतपुर आदि
ये संख्या 2017 में बहुमत बच्चों की थी), वे ‘दिल्ली पत्राचार’ या एन॰आई॰ओ॰एस॰ में
जाने को मजबूर हैं। बच्चों के भविष्य की कीमत पर आप सरकार के तथाकथित शिक्षा सुधार
हो रहें हैं। ये कदम केवल बच्चों की कुर्बानी देकर कृत्रिम
तरीके से परिणाम सुधार कर अपनी वाहवाही
करने जैसा है।
वास्तविक शिक्षा सुधार जिसमें सभी स्कूलों में पर्याप्त संख्या में शिक्षक हों
ताकि शिक्षक छात्र अनुपात 1: 35 से अधिक नहीं होना चाहिये, सभी विषयों के शिक्षक सभी
स्कूलों में उप्लब्ध हों, जैसी समस्याओं पर कुछ ध्यान ही नहीं है। न ही अन्य बुनियादी
सुविधाओं पर जैसे कि डेस्क की कमी, स्वच्छ शौचालयों की कमी, टीचींग एड्स का अभाव, प्रयोगशालाओं
का अभाव व उनमें पर्याप्त उपकरणों का न होना, सुसज्जित कंप्यूटर लैब का अभाव आदि। न ही नये प्रशिक्षित
पर्मानेण्ट शिक्षकों की भर्ती पर ध्यान है। न ही इस ओर कोई चिंतन किया गया है कि सभी
बच्चों के स्तर को कैसे सुधारा जाये या कुल शिक्षा स्तर को कैसे सुधारा जाये।
कुल
मिला कर कहा जा सकता है कि आप सरकार का यह प्रचार केवल अपनी पीठ ठोकने के बराबर है।
केवल कुछ टीमटाम की गई है, कुछ सुंदर नई इमारतें बनी हैं, परिणाम सुधार दिखाने हेतु
छात्रों की छंटनी कर बहुतों को तो स्कूल सिस्टम से ही बाहर कर दिया गया है। छात्रों
में परस्पर भेदभाव बढ़ाया गया है और किसी भी बुनियादी प्रश्न को हल करने की न कोशिश
की गई है और न ही भविष्य में उस और कुछ प्रयास नजर आतें हैं। जंग लगी इमारत पर नया
पेंट कर उसे चमकाया गया है और जगह तो और जीर्ण करा जा रहा है जैसे कि भेद भाव बढ़ाना।
इस समस्या का हल छात्रों व मां बाप, अभिवावकों के साथ लेकर एक आंदोलन से ही निकल सकता
है।
No comments:
Post a Comment