Friday 13 November 2015

बिहार चुनावः किसकी जीत- संक्षिप्त टिप्पणी

बिहार के चुनावों से जहाँ भक्तगण  हताश हो कर खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रहे हैं, वहीं बहुत से लोग इसे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनमत बता कर खुश हो रहें हैं।  दोनों ही सचाई से कौसों दूर हैं। जरा इनके तर्कों पर नजर डालें।
भाजपा वाले कह रहें हैं कि ये चुनाव विकास बनाम जातिवाद था। दर असल जातिगत गोलबन्दी भारतीय  समाज की सचाई है। मोदी का स्वयं को कभी पिछड़ा, कभी अति पिछड़ा व कभी दलित माँ का बेटा बताना क्या है? माझी, पासवान से गठबन्धन क्यों किया गया? यह भी अजीब है कि पिछड़ी जाति की गोलबन्दी ही जातिगत लगती है, सारे अगड़े भाजपा के पीछे थे वो क्या था? पप्पू यादव को क्यों टिकट दिया गया? उनकी शराफत देख कर? आरक्षण पर भाजपा को क्यों समर्थन का दावा करना पड़ा? भाजपा के समर्थकों का इस पर क्या स्टैंड है? कोइ कह रहा है कि अकेले बेचारे मोदी को घेर लिया! गठ्बन्धन  जीत गया। भई जब लड़ा ही गठबन्धन था तो जीतता भी गठ्बन्धन ही। कुछ वोट प्रतिशत दिखा कर खुश हो रहे हैं, पर यह बात तो सभी चुनावों में लागू होती है, लोकसभा में भी भाजपा को 30% वोट ही मिले थे पर सीटें बहुत ज्यादा। सभी जगह एक ही पैमाना रखो। कुछ लोगो ने तो पूरी बिहार की जनता को ही तिरस्कृत कर नकार दिया। अभी  तक तो विधायिकायें ही भंग होती थी, ये लोग तो जनता को भंग कर नई जनता का चुनाव चाहते हैं। लोकसभा नतीजों पर भी तो कुछ बोलें, उसी बिहार की जनता के बारे में!
दरअसल मोदी से हुए मोहभंग को ये स्वीकरना ही नहीं चाहते। विकास के नाम पर केवल खोखले भाषण से जनता त्रस्त है। 200 रुपये किलो दाल, रेल टिकट में अप्रत्याशित बढ़ोतरी, बेरोजगारी, मेहनतकश आवाम की बदहाल होती जिन्दगी बुलेट ट्रेनों, स्मार्ट सिटी के सपनो से हल नहीं होंगी। जिन सपनो का माया जाल मोदी के इर्द गिर्द बुना गया था, वह तेजी से धाराशाही होता जा रहा है। जिनता अधिक गुब्बारे में हवा भरो, उतना ही उसके जरा से छूने से फूटने की आंशका बढ़ती है। जितनी अधिक आशा जगाओ, न पूरी होती देख वो जल्द ही निराश करती हैं। यही हो रहा है।
उधर दूसरी तरफ, जो इसे धर्म निरपेक्षता की, पिछ्ड़ों की या गरीबों के विकास या सुशासन की जीत बता रहें हैं वे भी भ्रम में ही हैं। पहली बात तो ये कि इनमें से कोइ भी दल धर्म निरपेक्षता पर प्रतिबद्ध नहीं है। केवल मुस्लिम वोटों के लिये उन्हें धर्म निरपेक्षता याद आती है। साथ में साधारण लोग जो तनाव नहीं चाहते उनका भी समर्थन मिल जाता है। अब ये कह रहें हम कि हम नया बिहार बनाएगें। भई पहले 15 साल लालू फिर 10 साल नितीश सरकार चला चुके हैं, अब अचानक से कौन सा जादुइ फॉर्मुला हाथ लग गया है! केवल एक बिहरी और पिछड़ा assertion को छोड़ कर और कोइ भी भलाइ नहीं हुइ है। राज ठाकरे को गलियने पर सभी आगे थे पर इस प्रश्न का उत्तर नहीं देते कि आखिर ऐसी स्तिथि क्यों है कि बिहारियों को बाहर जाकर रोजगार तलाशना पड़ता है? रोजगार के अवसर बिहार में ही क्यों नहीं? ण्डल कमिशन को भुनाने वले उसकी केवल एक ही सिफरिश आरक्षण को ही क्यों देखते हैं, भूमि सुधार को क्यो नहीं? लक्षमणपुर बाथे अन्य काण्ड किस के राज में हुए? निजी सवर्ण सेनायें (यहां पर पिछड़ों की गोलबन्दी को जातिगत राजनीति कहने वालों को जाति नजर नहीं आती) किसके शासनकाल में रहीं? कांग्रेस के लिये जरूर बहुत दिनों बाद कुछ लड्डू खाने का मौक है और इसका सहारा लेकर राहुल को पार्टी अध्यक्ष बनाने का भी।
दोनों ही पक्षों से अनेक सवाल पूछे जा सकते हैं। सूची बहुत लम्बी है। पर इसका एक और भी पक्ष है, जिस पर कोइ ध्यान नहीं दे रहा। उसक किक्र करने पहले कुछ बातें जो इस चुनाव परिणाम की कुछ  अच्छी बातें हो सकती हैं। एक तो मोदी-शाह-जेटली की तिकड़ी की चुनावी हार उनके घटिया मन्सूबे पर रोक लगायेगा और साथ ही आर॰एस॰एस॰ के तेजी से बढ़ रहे कुत्सित कर्मों पर भी। भाजपा के अन्दर भी मोदी विरोध मुखर होगा।
इसका सबसे रोचक पहलू रहा है कि सभी के वोट लोकसभा के मुकबले घटें हैं। सभी मतलब दोनों मुख्य गठबन्धन के सभी घटकों के और अन्य 22% पर गयें हैं। NOTA को 2.5 % मिले। यह स्पष्ट दिखाता है कि लोगों में सभी के प्रति निराशा बढ़ रही है और वह विकल्प तलाश रहा है। अभी वह इन्ही चुनावी घटकों में ढूंड रहा है। पर असली हल तो जन संघर्ष ही हैं।