Wednesday 30 March 2016

शहीद अश्फाकुल्लाह का आखिरी संदेश

आजादी के मतवाले और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के मजबूत स्तम्भ, बेहतरीन शायर और काकोरी काण्ड के अमर शहीद अश्फाकुल्लाह खान ने देशवासियों के नाम यह खत अपनी मँा को भेजा था। अश्फाकुल्ला खान के विचार न केवल आजादी की लड़ाई पर प्रकाश डालते हैं बल्कि आज भी प्रासंगिक है।
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बिरादराने वतन की खि़दमत में उनके उस भाई का सलाम पहुंचे जो उनकी इज्ज़त व नामूसे वतन की खातिर फै़जा़बाद जेल में कुर्बान हो गया। आज जबकि मैं यह पैगाम बिरादराने वतन को भेज रहा हूं, इसके बाद मुझको तीन दिन और चार रातें और गुजारनी हैं और फिर मैं हूंगा और आगोशे मादरेवतन होगा। हम लोगों पर जो जुर्म लगाए गए थे वह इस सूरत में पब्लिक में लाए गए कि हमकों बहुत से लोग जो गैरतालीमयाफ्ता या हुकूमत के दस्तारख्वान की पसेखुर्दा (बची हुई) हड्डियाँ चचोड़नेवाले थे, डाकू, खूनी, कातिल के लकब से पुकारा किए मैं आज इस फाँसी की कोठरी में बैठा हुआ भी खुश हूँ और अपने उन भाइयों का शुक्रिया अदा करता हूँ। और कहूँगा-
मर मिटा आप पै कौन/आपने यह भी न सुना,
आपकी जान से दूर/आप से शिकवा है मुझे।
खैर, यह तुम्हारा फैल है कि हमारी कुर्बानियों को कबूल न करो और यह हमारा फ़र्ज है कि तुम बार-बार ठुकाराओं मगर हम तुम्हारा ही दम भरे जाऐंगे। बिरादराने वतन, मैं उसी पाक व मुकद्दस वतन ही की कसम खाकर कहूंगा कि हम नंगे नामूसेवतन पर कुर्बान हो नए। क्या यह शर्म की बात नहीं थी कि हम अपनी आंखों से देखते कि नित गए मुज़ालिम हो रहे हैं और गरीब हिंदुस्तानी हर हिस्सायेमुल्क और खित्तयेदुनिया में जलील और रुस्वा हो रहे हैं और कहीं न ठिकाना है न सहारा। किस्सा मुख्तसर ये कि हमारा वतन भी हमारा नहीं। हम पर टैक्स की भरमार, हमारी माली हालत का रोज़बरोज़ गिरते जाना, 33 करोड़ बहादुर हिंदुस्तानी हिंदू और मुसलमान भेड़-बकरियों की मानिंद बनाए गए। हमारे गोरे आका हमें ठोकरें मार दें तो बाजपुर्स न हो। जनरल डायर जलियानवाला बाग को नमूनये हशर बना दे। हमारी माताओं की बेइज्जती करें। हमारे बूढों और बच्चों पर बम के गोले, गन-मशीनों की गोलियां बरसाऐं और हर नया दिन हमारे लिए नई एशो-इशरत में अय्यामे-जवानी ग़ुजार देते। यह ख्याल करके-
जनूने हुब्बे वतन का मजा/शबाब में है,
लहू में फिर यह रवानी रहे/रहे न रहे।
जो भी किया, भला किया, आज हम नाकाम रहे, डाकू हैं। कामयाब होते मुहिब्बे वतन के पाक लकब से पुकारे जाते। और जो भी आज हम पर झूठी गवाहियाँ दे गए, हमारे नाम के जयकारे लगाते-
बहे बहरे फ़ना में जल्द/यारब लाश बिस्मिल की, कि भूखी मछलियाँ हैं/जौहरे शमशीरे का़तिल की।
आह! क्या ऐसे दौर की जिंदगी प्यारी ख्याल की जा सकती हैं जबकि हमारे ही गिराह-सियासी में खलफशार मचा है। कोई तबलीग का दिलदादा है, तो कोई शुद्धि पर मर मिटने को बाइसेनिजात समझ रहा है। मुझे तो रह-रहकर इन दिमागों और अक्लों पर तरस आ रहा है जो कि बेहतरीन दिमाग हैं और माहरीने सियायत हैं। काश कि वह आजादिए मिस्र की जद्दोजहद, तहरारान मिस्र के कारनामे और बर्तानवी सियासी चालें स्टडी कर लें और फिर हमारे हिंदूस्तान की मौजूदा हालत से मुकाबिला व मवाज़ना करें, क्या ठीक वही हाल इस वक्त नहीं है। गवर्नमेंट के खुफिया एजेंट प्रोपेगेंडा मजहबी बुनियाद पर फैला रहे हैं। इन लोगों का मकसद मजहब की हिफ़ाजन या तरक्की नहीं है बल्कि चलती गाड़ी में रोड़ा अटकाना है। मेरे पास वक्त नहीं और न मौका है कि सब कच्चा चिट्ठा खोलकर रख देता जो मुझे अय्यामें फरारी में और उसके बाद मालूम हुआ है। यहां तक मुझे मालूम है कि मौलवी नियामतुल्ला कादियानी कौन था कि काबुल में संगासार किया गया था वह ब्रिटिश एजेंट था जिसके पास हमारे करमफरमा खानबहादुर तसद्दुक-हुसैन साहब, डिप्टी सुपरिंटेंडेंट सी.आई.डी. गावर्नमेंट आॅफ इंडिया पैगाम लेकर गए थे मगर बदारमगज हुकूमत काबुल ने इलाज जल्द कर दिया और मर्ज को फैलने न दिया। मैं अपने हिंदुओं और मुसलमान भाइयों को बता देना चाहता हूं कि सब ढोंग है जो सी.आई.डी. के खुफिया खजाने के रुपए से रचा गया है। मैं मर रहा हूं और वतन पर मर रहा हूं। मेरा फर्ज है कि हर नेकाबद बात भाइयों तक पहंुचा दूं। मानना न मानना उनका काम है। मुल्क के बड़े-बड़े लोग इससे बचे हुए नहीं हैं। पस अवाम को आंखें खोलकर इत्तबा करना चाहिए। भाइयों! तुम्हारी खानाजंगी तुम्हारी आपस की फूट, तम दोनों में से किसी के भी सूदमंद साबित न होगी। यह गैरमुमकिन है कि 7 करोड़ मुसलमान शुद्ध हो जाऐं और वैसे ही यह भी महमल -सी बात है कि 22 करोड़ हिंदू मुसलमान बना लिए जाऐं। मगर हां यह आसान है और बिल्कुल आसान है कि यह सब मिलकर गुलामी का तौक गले में डाल लें। ऐ वह कौम जिसका कोई कौमी झंडा नहीं-ऐ वह कि तेरा वतन मेरा वतन नहीं-ऐ वह कि दूसरों की तरफ हाथ फैलाए हुए रहम की दरख्वास्त पर नजर रखनेवाली बेकस कौम तेरी अपनी गलतियों का यही नतीजा है कि आज तू गुलाम है और फिर वही गलतियां कर रही है कि आनेवाली नस्लों के लिए धब्बा गुलामी का छोड़ जाएगी कि जो भी सरजमीने हिंद पर कदम रखेगा गुलामी में रखेगा और गुलाम बनाएगा। ऐ खुदावंदे कुद्दूस क्या कोई ऐसा सबेरा नहीं आएगा कि जिस सुबह को तेरा आफताब आजाद हिंदूस्तान पर चमके और फिजाए हिंद आजादी के नारों से गूंज उठे। काग्रेसवाले हों कि सोशलिस्ट, तबलीगवाले हों कि शुद्धीवाले, कम्युनिस्ट हों कि रिवोल्यूशनरी अकाली हों कि बंगाली, मेरा पयाम हर फरजंदेवतन को पहुंचे। मैं हर शख्स को उसकी इज्जत व मजहब का वास्ता देता हूं। अगर वह मजहब का कायल नहीं तो उसके जमीर को और जिसको भी वह मानता हो, अपील करता हूं कि हम काकोरी केस के मर जानेवाले नौजवानों पर तरस खाओं। और फिर हिंदुस्तान को सन् 20 व 21 वाला हिंदुस्तान बना दो। फिर अहमदाबाद कांग्रेस जैसा इत्तिहाद इत्तिफाक का नजारा सामने हो, बल्कि उससे बढ़कर हो और मुकम्मल आजादी का जल्द से जल्द ऐलान करके इन गोरे आकाओं को हटा दो कि ये अब केंचुली उतार चुके हैं और अब वह किसी मंत्रा से बस में न होंगे-तबलीग व शुद्धीवालों खुदारा आंखें खोलो, कहां थे और कहां पहुंच गए, अपनी-अपनी शान खत्म करो, सोचों तो मजहब में जबरदस्ती इखतिलाफे राय पर जंग, एक काम नामुकम्मल छोड़कर दूसरी तरफ रुजू हो गए। आज कौन ऐसा हिंदू या मुसलमान है जो मजहबी आजादी इतनी रखता है कि जितना उसका हक है? क्या गुलाम कौम का कोई मजहब होता है? तुम अपने मजहब का सुधार क्या कर सकते हो? तुम खुदा की इबादत पुरसुकून तरीके पर करो। तुम ईश्वर का ध्यान खामोशी से करो और दोनों मिलकर इस सफेद भूत को मंत्रा से जंत्रा से उतार भगाओं। इसी की यह सारी कार्यवाही है। जब यह भूत उतर जाऐगा, हमारी आंखें खुल जाऐंगी। आओं हमारी भी सुनो, पहले हिंदुस्तान को आजाद करो, फिर कुछ और सोचना, खुदा ने जिसके लिए जो रास्ता मुतखिब कर दिया है, वह उसी पर रहेगा। तुम किसी को भी नहीं हटा सकते। आपस में मिल-जुलकर रहो और मुत्तहिद हो जाओ, नहीं तो सारे हिंदुस्तान की बदबख्ती का वार तुम्हारी गर्दन पर है और गुलामी का बाइस तुम हो। कम्युनिस्ट ग्रुप से अशफाक की गुजारिश है कि तुम इस गैरमुल्क की तहरीक को लेकर जब हिंदुस्तान में आए हो तो तुम अपने को गैरमुल्की ही तसव्वुर करते हो, देसी चीजों से नफरत, विदेशी पोशाक और तर्जेमआशरत के दिलदादा हो, इससे काम नहीं चलेगा। अपने असली रंग में आ जाओ। देश के लिए जिओ, देश के लिए मरो। मैं तुमसे काफी तौर पर मुत्तफिक हूं और कहूंगा कि मेरा दिल गरीब किसानों के लिए और दुखिया मजदूरों के लिए हमेशा दुखी रहा है। मैं अपने अय्यामें फरारी में भी अक्सर अनकी हालत देखकर रोया किया हूं क्योंकि मुझे इनके साथ दिन गुजारने का मौका मिला हैं मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा कि मेरा बस हो तो मैं दुनिया की हर मुमकिन चीज इनके लिए वक्फ कर दूं। हमारे शहरों की रौनक इनके दम से है। हमारे कारखाने उनकी वजह से आबाद और काम कर रहे हैं। हमारे पंपों से इनके हाथ ही पानी निकालते हैं, गर्ज कि दुनिया का हर एक काम इनकी वजह से हुआ करतो है। गरीब किसान बरसात के मूसलाधार पानी और जेठ-बैसाख की तपती दोपहर में भी खेतों पर जमा होते हैं और जंगल में मंडलाते हुए हमारी खुराक का सामान पैदा करते हैं। यह बिल्कुल सच है कि वह जो पैदा करते हैं जो वह बनाते हैं, उनमें उनका हिस्सा नहीं होता, हमेशा दुखी और मफलूकुल हाल रहते हैं। मैं इत्तिफाक करता हूं कि इन तमाम बातों के जिम्मेदार हमारे गोरे आका और उनके एजेंट हैं। मगर इनका इलाज क्या हे कि उनको उस हालत पर ले आऐं कि वह महसूस करने लगें कि वह क्या है। इसका वाहिद जरिया यह है कि तुम उन जैसी वजा-किता इख्यिार करो और जंटिलमैनी छोड़कर देहात का चक्कर लगाओ। कारखानों में डेरे डालो और उनकी हालत स्टडी करो और उनमें एहसास पैदा करो। तुम कैथरीन ग्रांड मदर आॅफ रशिया की सवानेहउम्री पढ़ो और वहां के नौजवानों की कुरबानियां देखो। तुम कालर टाई और उम्दा सूट पहनकर लीडर जरूर बन सकते हो, मगर किसानों और मजदूरों के लिए फाइदेमंद साबित नहीं हो सकते। दीगर पाॅलिटिकल जमाअतों से मुत्तहिद होकर काम करो और अपनी माद्दापरस्ती से किनारा करो कि यह फिजूल है जो तुम्हें दूसरी जमाअतों से अलग किये हुए हैं। मेरे दिल में तुम्हारी इज्जत है और मैं मरते हुए भी तुम्हारे सयासी मकसद से बिल्कुल मुत्तफिक हूं। मैं हिंदुस्तान की ऐसी आजादी का ख्वाहिशमंद था जिसमें गरीब खुश और आराम से रहते। खुदा मेरे बाद वह दिन जल्द आए जबकि छत्तरमंजिल लखनऊ में अब्दुल्ला मिस्त्राी लोको वर्कशाॅप और धनिया चमार, किसान भी मिस्टर खलीकउज्जमा और जगत नारायण मुल्ला व राजा साहब महमूदाबाद के सामने कुर्सी पर बैठे हुए नजर पडें़। मेरे कामरेडो, मेरे रिवाल्युशनरी भाइयों-तुमसे मैं क्या कहूं और तुमको क्या लिखूं, बस यह तुम्हारे लिए कया कुछ कम मुसर्रत-की बात होगी, जब सुनोगे कि तुम्हारा एक भाई हंसता हुआ फांसी पर चला गया और मरते-मरते खुश था। मैं खूब जानता हूं कि जो स्प्रिट तुम्हारा तबका रखता है-चूंकि मुझको भी फख्र है और अब बहुत ज्यादा फख्र है कि एक सच्चा रिवोल्यूशनरी होकर मर रहा हूं उस सिपाही की तरह हूं जो फायरिंग लाइन पर हंसता चला जा रहा हो ओर खंदकों में बैठा हुआ गा रहा हो। तुम्हें दो शेर हसरत मोहानी साहब के लिख रहा हूं-
जान को महवे गम बना दिल का वफा निहाद कर,
बंद ये हश्क हे तो यूं कता रहे मुराद कर।
ऐ कि निजाते हिंद की दिल से हे तुझको आरजू,
हिम्मते सर बुलंद से यास का इंसदार कर।
हजार दुख क्यों न आऐं-बहरे जख्खार दरमियान में मौज़ें मारें-आतिशी पहाड़ क्यों न हायल हो जाएंे मगर ऐ आजादी के शेरो, अपने-अपने गरम खून को मातृभूमि पर छिड़कते हुए और जानों को मातृवेदी पर कुर्बान करते हुए आगे बढ़े चले जाओ। क्या तुम खुश न होगे जब तमको मालूम होगा कि हम हंसते हुए मर गए। मेरा वज़न जरूर कम हो गया हे, और वह मेरे कम खाने की वजह से हो गया है। किसी डर या दहशत की जह से नहीं हुआ है-और मैं कन्हाई लाल दत्त की तरह वजन न बढ़ा सका मगर हां खुश हूं, और बहुत खुश हूं। क्या मेरे लिए इससे बढ़कर कोई इज्जत हो सकती है कि सबसे पहला और अब्बल मुसलमान हूं जो आजादिए-वतन की खातिर फांसी पा रहा है-मेरे भाइयों! मेरा सलाम लो और इस नामुकम्मल काम को, जो हम से रह गया है, तुम पूरा करना। तुम्हारे लिए यू.पी. में मैदाने-अमल तैयार कर दिया, तुम्हारा काम जाने। इससे ज्यादा उम्दा मौका तुम्हारे हजार प्रोपेगंडे से न होता। स्कूल और काॅलेजों के तुलबा हमारी तरफ दौड़ रहे हें, अब बहुत अर्से तक दिक्कत न होगी-
उठो-उठो सो रहे हो नाहक/पयामे बांगे जरस तो सुन लो,
बढ़ो कि कोई बुला रहा है/निशाने मंजिल दिखा-दिखाकर।
ज्यादा क्या लिखूं, सलाम लो-और कमर हिम्मत बांध लो और मैदाने-सियासी लीडरों मेरा सलाम कबूल करो और तुम हम लोगों की उस नजर से न देखना जिस नजर से दुश्मनाने वतन और खाइनीने कौम देखते थे। न हम डाकू थे, न कातिल-
कहां गया कोहेनूर हीरा/किधर गई हाय मेरी दौलत,
वह सबका सब लूटकर कि उलटा/हमीं को डाकू बता रहे हैं।
हमीं को दिन-दहाड़े लूटा, फिर हमीं डाकू हैं। हमारे भाइयों और बहनों और बच्चों को जनियानवाला बाग में भून डाला और अब जमीं को कालस बलूट फैसले में लिाखा जाता है। अगर हम ऐसे है तो वह कैसे हे और किस खिताब से पुकारे जाने के काबिल हैं, उन्होंने हिंदुस्तान का सुहाग लूट लिया, जिन्होंने लाखों बहादुरों को अपनी गरज के लिए मेसोपोटामिया और फ्रांस के मैदान में सुलवा दिया, खूंख्खार जानवर, जालिम दरिंदे वह हैं या कि हम? हम बेवश थे, कमजोर थे, सब कुछ सुन लिया और ऐ वतनी भाइयों यह सब तुमने सुनवाया। आओ फिर मुत्तहिद हो जाओ, फिर मैदाने अमल में कूद पड़ो और मुकम्मल आजादी का ऐलान कर दो। अच्छा अब मैं रुखसत होता हूं और हमेशा के लिए खेरबाद कहता हूं। खुदा तुम्हारे साथ हो और फिजायेहिंद पर आजादी का झंडा जल्द लहराए। मेरे पास न वह ताकत है कि हिमालय की चोटी पर पहुंचकर एक ऐसी आवाज निकालूं जो हर शख्स को बेदार कर दे और न वह असबाब हे कि जिससे फिर तुम्हारे दिल मुश्ताइल कर दूं कि तुम उसी जोश से आगे बढ़कर खडे़ हो जाओ जेसे सन् 20 व 21 में थे। मैं चंद सुतूर के बाद रुखसत होता हूं।
ज्व मअमतल उंद नचवद जीपे मंतजीए
क्मंजी बवउमजी ेववद वत संजमए
ठनज ;जीमदद्ध ीवू बंद ं उंद कपम इमजजमतए
ज्ींद ंिबपदह मिंतनिस वककेए
थ्वत जीम ंेीमे व िीपे ंिजीमते ंदकए
ज्मउचसमे व िीपे ळवकण्
बाद को मैं अपने उन भाइयों से रुखसत शुक्रिए के साथ होता हूं जिन्होंने हमारी मदद जाहिर तौर पर की या पोशीदा। और यकीन दिलाऊंगा कि अशफाक आखिरी दम तक सच्चा रहा और खुशी-खुशी मर गया-और ख्यानते-वतनी का उस पर कोई नहीं लगाया जा सकता। वतनी भाइयों से गुजारिश हे कि मेरे बाद मेरे भाइयों को वक्त जरूरत न भूलें और उनकी मदद करें और उनका ख्याल करें।
वतन पर मर मिटने वाला
अशफाक वारसी ‘हसरत’
अज, फैजाबाद जेल।
मेरी तहरीर मेरे वतनी भाइयों तक पहुंच जाए। ख्वाह विद्यार्थी जी अखबार के जरिए से या अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू में छापकर कांग्रेस के अय्याम में तकसीम करा दें, मशकूर हूंगा। मेरा सलाम कबूल करें और मेरे भाइयों को न वह कभी भूलें और न मेरे वतनी भाई फरामोश करें।
अलविदा!
अशफाकउल्लाह वारसी ‘हसरत’
फैजाबाद जेल
19 दिसंबर, 1927