Saturday 13 August 2022

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020ः आम जन से शिक्षा छीन, मुनाफाखोरों की थैली भरने की तैय्यारी

यह लेख प्रतिरोध का स्वर के अगस्त  2022 अंक़ में छपा था,
मृगांक द्वारा लिखित 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (नेप 2020) दरअसल विश्व व्यापार संगठन और विश्व बैंक द्वारा निर्देशित सूत्रों पर ही आधारित है जिस की मूल भावना है की शिक्षा को व्यापारिक सेवाओं में अर्थात मुनाफा कमाने वाली सेवाओं में शामिल किया जाए,  शिक्षा पर होने वाला सरकारी खर्च कम से कम करा जाए और इसे पूरी तरह से मुनाफाखोरी के हवाले कर दिया जाए। 1995 के बाद से इसे लागू नहीं किया जा सका, और जब विकसित देशों में 2000 के बाद लागू करने का प्रयास किया गया तो वहां इसका पुरजोर विरोध हुआ। इसके चलते विश्व व्यापार संगठन ने तीसरी दुनिया के देशों का रुख किया।  भारत ने 2005 में ही इस पर हस्ताक्षर करने  की प्रतिबद्धता जाहिर कर दी थी।  पर अनेक विरोधियों के चलते तत्कालीन यूपीए सरकार इसे लागू नहीं कर सकी। 

इसके मूल में विदेशी शिक्षा व्यापारियों को बिना किसी पाबंदी के देश में व्यापार करने की छूट, शिक्षकों व छात्रों का बेरोकटोक आवागमन, ऑनलाइन शिक्षा  को बढ़ावा, मजबूत केंद्रीय नियंत्रण तथा एकरूपता शामिल है। वर्तमान सरकार जो अपनी साम्राज्यवाद परस्ती को राष्ट्रवाद के पर्दे तले छिपाने की कोशिश करती है,  ने इन शर्तों को लागू करना शुरू किया।  इस पर मोदी सरकार 2016 से ही काम कर रही है। एक के बाद एक दस्तावेजों के बाद, 2020 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति अर्थात नेप 2020 सामने आई। 

यह पहली शिक्षा नीति है जो 3 साल से बच्चे से लेकर शोध छात्रों तक को कवर करती है। आंगनवाड़ी जो समेकित बाल विकास योजना का भाग है, और निचले तबके के बच्चों को स्कूल पूर्व शिक्षा व पौष्टिक भोजन आदि मुहैया कराती है, को भी अब शिक्षा नीति में समेट लिया गया है। इस तर्क को रखते हुए कि स्कूल पूर्व शिक्षा यदि अच्छी हो तो बच्चे स्कूल में अच्छा करते हैं। जैसा कि इस नीति के पूरे दस्तावेज में है जो भी समस्या चिह्नित की जाती है, उसका समाधान एकदम उलटा दिया गया है। यहां पर भी ऐसा ही है। स्कूल प्रवेश के लिए प्रीस्कूलिंग़ आवश्यक बनाई गई है पर अच्छी प्रीस्कूलिंग़ नहीं। यहां सुझाव रखा गया है कि संसाधनों के अभाव में हमें नए तरीके अपनाने होंगे जैसे बोतल में पत्थर डालकर झुनझुने बनाए जा सकते हैं। इसका मतलब कि स्कूल पूर्व शिक्षा में सुधार नहीं बल्कि घटिया स्कूल पूर्व शिक्षा ही दी जाएगी। बजाय इसके कि यदि संसाधन नहीं है तो उनको मुहय्या किया जाए। स्पष्ट है ऐसा सरकारी शिक्षा पाने वाले बच्चों के साथ होगा। 

इसी प्रकार यह चिंता व्यक्त करती है कि बहुत से गांव में ऐसे स्कूल हैं जहां पर केवल दो ही शिक्षक हैं। इस कारण से वहां अच्छी पढ़ाई नहीं होती है। इसके समाधान के लिए शिक्षकों की संख्या बढ़ाने की बजाय उन स्कूलों को बंद करने की  सिफारिश की गई है। ऐसा भी कहा गया है कि एक स्कूल कांप्लेक्स बनाया जाएगा जिसमें जिले में एक बड़ा स्कूल और उसके इर्दगिर्द निचली कक्षाओं के स्कूल होंगे। ये सब एक ही स्कूली प्रशासन के नियंत्रण में रहेंगे। स्कूल बंद होने पर बच्चों को इस कांप्लेक्स में पढ़ने की सुविधा मिलेगी। स्कूल कांप्लेक्स में सरकारी व निजी स्कूलों में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। इससे स्कूल पहुंच से दूर होंगे क्योंकि  कांप्लेक्स के सारे स्कूल गांव के समीप नहीं होंगे।  इस पर भी चिंता व्यक्त की गई है पर समाधान बस या ट्रांसपोर्ट के अन्य साधन मुहैया कराना नहीं बल्कि इसमें भी नए तरीके बनाने पर जोर दिया गया है जैसे कि वाकिंग ग्रुप्स अर्थात कई बच्चे एक साथ जाएंगे तो उन्हें थकान महसूस नहीं होगी। हालांकि यह बात सभी समझ सकते हैं कि यदि ऐसे समूह बनाने हैं तो वह बच्चे खुद ही बना सकते हैं और आमतौर से बना भी लेते हैं। यदि स्कूल दूर हुए तो बहुत से बच्चे और विशेषकर लड़कियां स्कूल नहीं जा पाएंगे।

शिक्षकों की कमी को शिक्षकों की भरती करके पूरा करने का विचार नहीं है बल्कि स्कूल कंपलेक्स में किसी भी शिक्षक को किसी भी स्कूल में पढ़ाने की जिम्मेदारी मिल सकती है, यहां तक कि निजी स्कूल में भी। मतलब कि सरकार से तनख्वाह लेने वाला शिक्षक निजी स्कूल में पढ़ाएगा। 

चिंता तो खराब छात्र शिक्षक अनुपात  तथा सकल नामांकन अनुपात (एक आबादी के कितने बच्चे दाखिला लेते हैं) पर भी जताई गई है और उसका समाधान स्कूल बंद कर कांप्लेक्स बनाना जहां पर एक ही शिक्षक  अलग-अलग स्कूल में जाएंगे है। साथ ही यह प्रस्ताव भी है कि समाज में वह लोग जो शिक्षक नहीं है पर पढ़ाना चाहते हैं उन्हें भी सेवा का मौका दिया जाएगा और वह बच्चों को पढ़ा सकते हैं। दूसरा नेशनल ट्यूटर प्रोग्राम जिसमें बड़ी क्लास के बच्चों को छोटी क्लास के बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाएगा। शिक्षकों की बात करते हुए शिक्षा नीति यह भी कहती है कि वर्तमान शिक्षक बीएड कोर्स करके आते हैं वह पर्याप्त नहीं है और बेहतर 4 वर्षीय बीएड कोर्स आवश्यक होगा। अभी के शिक्षकों की गुणवत्ता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए अप्रशिक्षित लोगों को स्कूलों में पढ़ाने का मौका दिया जाएगा! जाहिर है इस प्रकार के प्रयोग सरकारी स्कूलों में ही होंगे और निजी स्कूलों में शिक्षक ही  पढ़ाएंगे चाहे वह सरकारी स्कूल के ही क्यों ना हो। यानी अगर आपके पास पैसे होंगे तो आप स्कूली शिक्षा ले सकेंगे अन्यथा स्कूल में दाखिला लेकर भी अच्छी शिक्षा मिलना दूर की बात होगी।

नामांकन अनुपात को ठीक करने के लिए पहुंच में अच्छे स्कूलों को बनाने की बात करने की बजाए दूरस्थ शिक्षा (ओपन डिस्टेंस लर्निंग) जिसका आजकल प्रचलित तरीका है ऑनलाइन शिक्षा, को बढ़ावा देने की बात की जा रही है। ऑनलाइन शिक्षा पिछले 2 वर्ष में सभी ने भुगती है और देखा है कि किस प्रकार आमजन शिक्षा से दूर हो गए हैं।

यह नीति इस बात पर भी चिंता व्यक्त करती है कि निजी स्कूल केवल मुनाफाखोरी करते हैं और शिक्षा को व्यापार बना रखा है, तथा इसमें बहुत भ्रष्टाचार है। और समाधान-  यदि शिक्षा में निजी निवेश किया जाएगा तो वह पूरी पारदर्शिता से होना चाहिए, खर्च का लेखा-जोखा वेबसाइट पर डाला जाना चाहिए, मुनाफे को किसी अन्य शिक्षा योजना में खर्च किया जाना चाहिए।  पहली चीज तो मुनाफा कमाने पर तो कोई रोक है ही नहीं। दूसरे, नियंत्रण के नाम पर केवल पारदर्शिता। हम सभी जानते हैं कि किस प्रकार पूंजीपति अपनी बैलेंस शीट बनाते हैं। यहाँ आपको सिर्फ दिखाना है कि आपका मुनाफा (यदि वह भी दिखाया गया है तो) शिक्षा में ही कहीं खर्च किया गया है।

स्कूली शिक्षा में वोकेशनल कोर्सों पर जोर दिया गया है और उन्हें बाकी कोर्सों  के समकक्ष रखा गया है। ऐसा कहा गया है कि छठी क्लास से ही बच्चे कुछ मौज मस्ती के कोर्स जैसे बढ़ई गिरी, बागवानी  आदि करेंगे। यदि संसाधन नहीं होंगे तो बच्चों को इस प्रकार के कोर्सों में धकेला जाएगा। इसका एक मतलब तो यह हुआ कि छठी क्लास से ही बच्चे की लाइन तय की जा रही है, जबकि अनुभव बताता है 11वीं क्लास में भी बच्चे कई बार स्पष्ट नहीं होते हैं। दूसरे, यह बच्चों को कुशलता तो देगा पर ज्ञान नहीं। आप बिजली का तार लगा सकेंगे पर बिजली क्या होती है कैसे बनती है इत्यादि नहीं सीखेंगे। यह बड़े  देसी विदेशी कॉरपोरेट घरानों के लिए कुशल मजदूर पैदा करने का तरीका है, और जाहिर है इसकी भी एक बहुत छोटी संख्या ही दरअसल नौकरी पा पाएगी। यदि आप निजी स्कूलों में पढ़ रहे होंगे तो आप अर्थपूर्ण शिक्षा ले सकते हैं और भविष्य में बेहतर समझे जाने वाले पेशे जैसे डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर आदि बन सकते हैं। अन्यथा कम ज्ञान पाये कुशल मजदूर ही बनेंगे।

इस तरह से हम देख सकते हैं कि किस तरह से स्कूली शिक्षा मुनाफाखोरी के हवाले की जा रही है और केवल पैसे वाले ही अच्छी अर्थपूर्ण शिक्षा ले सकेंगे।  यही हाल उच्च शिक्षा का भी होगा। 

शिक्षा नीति का नजरिया है कि आने वाले 15 साल में भारत में कालेजों की संख्या लगभग एक तिहाई कर दी जाए। शिक्षा नीति का प्रस्ताव है कि कालेजों को स्वतंत्र विश्वविद्यालय का दर्जा दिया जाए ताकि वह अपनी डिग्री खुद दे सके और अपने कोर्स आदि तय कर सकें। बहु विषयक (मल्टीडिसिप्लिनरी) कोर्स करने होंगे। पर साथ ही साथ कालेजों को वित्तीय स्वायत्तता भी धीरे-धीरे प्राप्त करनी होगी। अर्थात कालेजों की ग्रांट धीरे धीरे कम की जाएगी और कालेजों को अपने खर्चे स्वयं निकालने होंगे। विश्व बैंक के प्रस्तावों में इसके लिए जो रास्ते सुझाए गए हैं उनमें हैं एक तो कॉलेज अपनी फीस बढ़ाएं या सेल्फ फाइनेंसिंग कोर्स शुरू करें।  दूसरा अपनी  संपत्ति से धन अर्जन करें- अर्थात अपने  मैदान किराए पर दें, लाइब्रेरी में यूजर चार्ज लगाएं, कैंटीन आदि निजी ठेकेदारों को दिए जाएं, खाली कमरे व अन्य चीजों को भी किराए पर दिया जा सकता है इत्यादि। और तीसरा है कि किसी अन्य पार्टी से निवेश प्राप्त किया जाए। जाहिर बात है कि  निवेश करने वाली पार्टी मुनाफे के लिए निवेश करेगी और ऐसे कोर्सों को बढ़ावा देगी जो व्यावसायिक होंगे और उनकी खर्चे ज़ाहिर तौर पर  बढ़ी हुई फीसों से ही आएंगे। 

साथ ही टेक्नोलॉजी व  डिजिटल इंडिया के नाम पर ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है। यूजीसी ने मिश्रित शिक्षा (ब्लेंडेड एजुकेशन) के नाम पर प्रस्तावित किया है कि कुल शिक्षा का चालीस प्रतिशत ऑनलाइन होना चाहिए।  यह प्रस्ताव पहले तो इस बात को मान कर चलता है के सभी छात्रों के पास ऑनलाइन शिक्षा हेतु उचित सुविधाएं जैसे उपकरण, सही नेटवर्क, समुचित डाटा व व्यक्तिगत कमरे हैं।  यह मान्यता अपने आप में ही गलत है और इस कारण से प्रस्ताव मूल रूप से व्यावहारिक नहीं है। दूसरे ऑनलाइन शिक्षा दुनिया भर में सफल नहीं रही है। विकसित देशों में भी देखा गया है कि ऑनलाइन शिक्षा  में दाखिला लेने वाले अधिकांश छात्र कोर्स पूरा नहीं कर पाते हैं। इसके अनेक कारण है। सबसे प्रमुख कारण है आपस में बातचीत का अभाव। शिक्षक और छात्र के बीच में कोई सीधी बातचीत नहीं है जिसके कारण शिक्षक यह समझ नहीं पाएगा कि छात्र उसकी बात समझ पा रहे हैं या नहीं या किस तरह से अपनी बातों को छात्रों के समझ पाने के अनुसार बदले। अनेक जगह तो रिकॉर्डेड वीडियो लेक्चर ही चलाया जाते हैं। दूसरे छात्र आपस में बातचीत नहीं करते हैं, आपस में शिक्षा व अन्य विषयों पर कोई विमर्श नहीं होता है वह अन्य गतिविधियां नहीं हो पाती हैं जिसके कारण ना तो पढ़ाई में और ना ही समग्रता से छात्रों का विकास हो पाता है। और भारत जैसे देश में सुविधाओं के अभाव में तो बहुत से बच्चे इस प्रकार से पढ़ ही नहीं पाते हैं और ना पढ़ पाएंगे। कई क्षेत्रों में नेटवर्क तो दूर,  फोन को चार्ज करने के लिए भी  बिजली  कई दिनों तक नहीं आती है। उपकरण व डाटा पर खर्च तो अलग बात है।

चार साला स्नातक कोर्स (एफ॰वाई॰ यू॰पी॰) भी साधारण पृष्ठभूमि से आए छात्रों पर एक प्रकार से हमला है। जो संरचना एफ॰वाई॰यू॰पी॰ की बनाई गई है उसमें अनेक बाहर निकलने के बिंदु (एग्जिट प्वाइंट) है। पहला साल पूरा करने के बाद सर्टिफिकेट, दूसरे साल के बाद डिप्लोमा, तीसरे के बाद स्नातक डिग्री व  चौथे के बाद ऑनर्स  डिग्री मिलेगी। अभी की पाठ्यक्रम संरचना के अनुसार पहले 3 सेमेस्टर अर्थात डेढ़ वर्ष छात्र वही सीखेंगे जो उन्होंने 12वीं तक सीखा था।  क्योंकि सभी छात्रों को सभी विषय पढ़ाए जाएंगे चाहे वो उनके पास 12वीं में थे या नहीं या चाहे वह उस विषय में डिग्री करना चाहते हैं या नहीं। इसलिए विषय बहुत हल्के रखे जाएंगे। इसका मतलब है कि सर्टिफिकेट कोर्स करने वाले छात्र दरअसल कुछ नया नहीं सीखेंगे और बाजार में सभी को पता होगा कि  सर्टिफिकेट करने वाले छात्र कितने सक्षम  हैं, उसी के अनुसार उनकी कद्र होगी।

इसके साथ ही एक एबीसी योजना-  एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट भी लाई गई है। हर कोर्स पूरा करने पर कुछ क्रेडिट  छात्रों को मिलेंगे। और यह क्रेडिट आपके क्रेडिट बैंक में जमा हो जाएंगे। इसके बाद आप यदि को छोड़ते हैं तो कभी भी और कहीं भी उन क्रेडिट को इस्तेमाल करके आगे बढ़ सकते हैं। यह बताया जा रहा है कि जो लोग पहले वर्ष में चले गए हैं वह बाद में फिर कभी भी आकर कितने भी साल बाद वहीं से शुरू कर सकते हैं क्योंकि उनके क्रेडिट जमा है। यह नहीं बताया जा रहा है कि आखिरकार यह छात्र पहले या दूसरे वर्ष के बाद बाहर क्यों जाना चाहते हैं? अधिकांशतः वह लोग ही बाहर जाएंगे जिनके ऊपर आर्थिक दबाव होगा। एक बार नौकरी या कमाई के चक्कर में पढ़ने के बाद कितने छात्र वापस कुछ वर्ष बाद डिग्री करने आएंगे?  यह संभावना तो नगण्य ही है। अभी इन एग्जिट प्वाइंट के ना होने से छात्र जबरदस्ती डिग्री कोर्स पूरा करते हैं पर अब इस उम्मीद में कि बाद में आ सकते हैं वह बाहर निकलेंगे। और इसके बाद उनका आना लगभग नामुमकिन होगा। दरअसल ये ड्रॉप आउट को कानूनी जामा पहनाने का एक तरीका है। और साधारण पृष्ठभूमि से आए छात्रों को अच्छी शिक्षा से बाहर करने का एक जरिया।

इसी प्रकार केंद्रीय विश्वविद्यालयों के प्रवेश के लिए एक केंद्रीय प्रवेश परीक्षा (सी॰यू॰ई॰टी॰) शुरू की गई है जिसमें सभी विश्वविद्यालयों के लिए एक परीक्षा होगी। अनेक केंद्रीय विश्वविद्यालयों ने  इसे स्वीकार भी कर लिया है और इस बार के प्रवेश इसी परीक्षा के माध्यम से होंगे। हालांकि मेरिट आधारित प्रवेश प्रणाली में भी सरकारी स्कूल के बच्चे आगे नहीं बढ़ पाते हैं पर यह परीक्षा उस समस्या को हल करने की बजाय और गंभीर करने के लिए डिजाइन की गई है।  इसमें पहली समस्या तो यह है कि अनेक विश्वविद्यालय अपने अपने तरीकों से पढ़ाते हैं जो उनकी अनन्यता या विशेषता है।  इस वजह से वे अपने हिसाब से प्रवेश मानदंड तय करते हैं। अब यह सब एकरुप हो जाएगा और इस प्रकार की विशेषताएं नहीं रह पाएंगी। दूसरे भारत जैसे बहु-संस्कृति बहुभाषी देश में एक किसी केंद्रीय पाठ्यक्रम के अनुरूप परीक्षा लेना किसी भी प्रकार से तर्कसंगत नहीं है। राज्यों के बोर्ड वाले बच्चे, जहां भारत के बहुसंख्यक बच्चे पढ़ते हैं इसमें पिछड़ जाएंगे। साथ ही,  इसकी घोषणा होते ही कोचिंग संस्थानों के विज्ञापन आने शुरू हो गए और कोचिंग संस्थान शुरू हो गए हैं। अभी तक आमतौर से पेशेवर शिक्षा जैसे मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि के लिए ही कोचिंग होती थी पर अब विश्वविद्यालय के सामान्य से कोर्स के लिए भी कोचिंग संस्थान खुल जाएंगे और जो लोग इस कोचिंग का खर्च वहन कर सकेंगे उनके बच्चे ही इस प्रवेश परीक्षा में सफल हो पाएंगे। 

दिल्ली विश्वविद्यालय में तो यह प्रस्ताव रखा है कि कुल क्रेडिट के 50 प्रतिशत क्रेडिट कहीं से भी लाए जा सकते हैं-  यानी दिल्ली विश्वविद्यालय के बाहर से। जैसा हमने ऑनलाइन शिक्षा और ऑनलाइन परीक्षा में देखा है कि बच्चे सामूहिक रूप से परीक्षा देते हैं और अच्छे नंबर लाते हैं। इसलिए अच्छे नंबरों के लालच में बच्चे पचास प्रतिशत क्रेडिट ऑनलाइन कोर्सों  से ले लेंगे। और यदि विश्वविद्यालय के बाकी बच्चे कोर्स में 40 परसेंट मिश्रित शिक्षा के नाम पर ऑनलाइन हो जाएंगे तो केवल 10 प्रतिशत ही शिक्षकों को पढ़ाने होंगे। अब यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के लिए शिक्षकों की आवश्यकता ना होगी, ना विश्वविद्यालय किसी विमर्श का केंद्र बनेंगे, ना किसी गतिविधि का, ना विरोध का, बस केवल अंक और डिग्री प्रदान करने वाली एक संस्था बन के रह जाएंगे।

इस प्रकार यह शिक्षा नीति स्कूल और कॉलेज दोनों की संख्या कम करने का प्रस्ताव रख रही है जबकि हमारे देश में इनकी, शिक्षकों की व अन्य संसाधनों की बढ़ोतरी की आवश्यकता है। ऑनलाइन शिक्षा पर प्रमुख जोर होने के कारण यह शिक्षा नीति कुछ सुविधा संपन्न लोगों को तो कुछ शिक्षा दे सकती है पर आम जनता के लिए शिक्षा या अर्थपूर्ण शिक्षा दूर की चीज ही हो जाएगी। ऑनलाइन शिक्षा के लिए गूगल और जिओ में भी करार हो चुका है और अनेक कंपनियां इसमें पूरी तरह कूद चुकी है। पाठ्यक्रम की एकरूपता इस प्रकार की कंपनियों के लिए बहुत लाभदायक है क्योंकि उन्हें एक ही कंटेंट बनाना होगा। एक बार कंटेंट बन गया तो उसके बाद उसे कई सालों तक इस्तेमाल किया जा सकेगा। एक अनुमान के अनुसार भारत में 1.96 बिलियन डॉलर ऑनलाइन व्यापार होगा। अर्थात जहां लोगों के हाथों से शिक्षा जाएगी उनकी दुर्दशा से भी मुनाफा कूटने की भरपूर तैयारी हो चुकी है।

यह शिक्षा नीति सिर्फ व्यवसायीकरण ही नहीं बल्कि पूरी शिक्षा के कारपोरेटीकरण (निजी कंपनियों को सौंपने) की नीति है जिससे आम जनों की शिक्षा से बेदखली तय है।