लेखक मृगांक ( यह लेख प्रतिरोध का स्वर के सितंबर 2025 अंक में प्रकाशित हुआ था)
गिग क्या है
गिग अर्थव्यवस्था एक बडा बदलाव लेकर आई है। गिग शब्द का अर्थ है एक अस्थायी, लचीली नौकरी जिसके
लिए भुगतान किया जाता है। पहले यह शब्द मुख्यतः संगीतकारों के लिए इस्तेमाल होता था, जो एकल कार्यक्रमों
के लिए काम करते थे। आज, इसका दायरा बढकर कई उद्योगों तक पहुँच गया है।
गिग में आमतौर पर एक विशिष्ट काम या प्रोजेक्ट शामिल होता है, जिसे जरूरत पड़ने
पर किया जाता है। इसमें घंटे और दरें लचीली होती हैं। गिग में काम करने वाले लोग किसी
एक नियोक्ता से बंधे नहीं होते और एक साथ कई लोगों के लिए काम कर सकते हैं, जिससे उनकी आय
के कई स्रोत होते हैं। हालाँकि अलग-अलग गिग से आय कम हो सकती है, लेकिन लगातार
कई गिग करने से पारंपरिक नौकरी जितनी कमाई हो सकती है। फिर भी, इनमें पारंपरिक
नौकरी जैसी सुरक्षा और लाभ (जैसे पी॰एफ॰, ई॰एस॰आई॰) नहीं मिलते।
गिग अर्थव्यवस्था ने पारंपरिक पूर्णकालिक रोजगार के मॉडल को चुनौती दी है। आज, डिलीवरी ड्राइवर, राइड शेयर चालक, फ्रीलांस डेवलपर, ऑनलाइन ट्यूटर
जैसे लाखों लोग इससे जुड़े हैं।
उदय का कारण
गिग अर्थव्यवस्था के तेजी से बढ़ने के पीछे आर्थिक और तकनीकी कारण हैं। स्मार्टफोन
और इंटरनेट की पहुँच ने डिजिटल प्लेटफॉर्म्स (जैसे उबर, ओला, स्विगी) को बढ़ावा
दिया। साथ ही, देश में बढ़ती बेरोजगारी ने लोगों को इस तरफ धकेला।
भारत में 2011-2016 के दौरान बेरोजगारी 4-5 प्रतिशत के बीच
थी, लेकिन 2017-19 में यह बढकर 6.1 प्रतिशत हो गई।
कोविड-19 के दौरान (अप्रैल 2020) यह 23.5 प्रतिशत के चरम
पर पहुँच गई और अब भी लगभग 7-8 प्रतिशत के आसपास बनी हुई है। युवाओं में बेरोजगारी
(्15-20 प्रतिशत) है।
विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र, जो बडे़ पैमाने पर रोजगार देता था, पिछड़ गया है।
इसकी जी॰डी॰पी॰ में हिस्सेदारी 15-17 प्रतिशत पर अटकी हुई है, जबकि लक्ष्य 25 प्रतिशत का था।
स्टील, टेक्सटाइल, लेदर और लघू, मध्यम व सूक्ष्म उद्योग
(एम॰एस॰एम॰ई॰) जैसे श्रम-गहन उद्योगों को झटके लगे हैं और वे बांग्लादेश, वियतनाम जैसे
देशों से पिछड गए हैं। इन उद्योगों में काम करने वाले बहुत से लोग अब बेरोजगार हैं।
इन हालात में कंपनियाँ स्थायी कर्मचारियों की जगह सस्ते और ’जरूरत पड़ने पर’
काम करने वाले गिग कर्मचारियों को रखने लगीं, क्योंकि इससे उनका खर्च कम होता है। दूसरी ओर, बेरोजगार लोगों
के पास गिग कार्य के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।
गिग अर्थव्यवस्था का आकार और दायरा
भारत में गिग अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। 2020-21 में लगभग 77 लाख श्रमिक, यानी गैर-कृषि
कार्यबल का 2.6 प्रतिशत, गिग में थे। अनुमान है कि
2029-30 तक यह संख्या बढ़कर 2.35 करोड़ हो जाएगी, जो कुल गैर-कृषि
श्रम का 6.7 प्रतिशत होगा। 2024 में इसका बाजार
आकार अनुमानित 455 बिलियन डालर था और 2033 तक यह 2.15 ट्रिलियन डालर
तक पहुँचने का अनुमान है।
गिग अर्थव्यवस्था में कई तरह के क्षेत्र शामिल हैं- जैसे भोजन और किराना डिलीवरी-
स्विगी, जोमेटो, ब्लिंकिट; राइड हेलिंग और टैक्सी सेवाए-
ओला, उबर, रैपिडो; लॉजिस्टिक्स और डिलीवरी- पोर्टर, अमेजोन फ्लेक्स, फ्लिपकार्ट; घरेलू और पेशेवर
सेवाए- अर्बन कंपनी, हाउसजोय; फ्रीलांसिंग- अपवर्क, फाइवर, टापटलय; ऑनलाइन ट्यूशन-
बाईजूस (व्हाईटहैट जुनियर)
गिग अर्थव्यवस्था का सकल घरेलू उत्पाद (जी॰डी॰पी॰) में योगदान 2014 में मात्र 0.5-0.8 प्रतिशत था, जो 2024 में बढ़कर लगभग
2.5-3 प्रतिशत हो गया है। 2012 में 80 लाख से 1 करोड़़ गिग कर्मचारी थे, जबकि 2024 में यह संख्या
2.5 से 3.5 करोड़ तक पहुँच गई है। नीति आयोग का अनुमान है
कि 2030 तक यह क्षेत्र जी॰डी॰पी॰ का 5 प्रतिशत हिस्सा बन जाएगा और लगभग 5 करोड़ लोगों को
रोजगार देगा।
लगभग 70 प्रतिशत गिग कर्मी ब्लू-कॉलर कर्मचारी हैं, जैसे डिलीवरी
बॉय, ड्राइवर, घरेलू कामगार। इनकी हालत सबसे ज्यादा खराब है-
लंबे घंटे, कम वेतन, कोई सुरक्षा नहीं। बाकी 30 प्रतिशत व्हाइट-कॉलर
कर्मचारी हैं, जैसे फ्रीलांसर, डिजाइनर। इनकी
मासिक आमदनी रु॰ 50,000 से रु॰ 2 लाख तक हो सकती है और इन्हें
कुछ हद तक सुरक्षा भी मिलती है। वहीं, ब्लू-कॉलर कर्मचारी की औसत मासिक आय रु॰ 20,000-रु॰ 25,000 है।
गिगः अच्छा या बुरा?
गिग अर्थव्यवस्था के समर्थक और विरोधी दोनों हैं। समर्थकों का कहना है कि इसमें
काम के घंटे लचीले होते हैं, यह अतिरिक्त आय का अच्छा स्रोत है और कर्मचारी
को अपना काम चुनने की आजादी होती है।
हालाँकि, वास्तविकता काफी भिन्न है।
नुकसान और शोषण
गिग अर्थव्यवस्था के कर्मचारियों के सामने गंभीर समस्याएँ हैं। सबसे बडी समस्या
है ’कर्मचारी’ की परिभाषा और उससे जुड़े अधिकारों का अभाव। गिग कर्मचारी को कोई कानूनी
लाभ नहीं मिलते। न न्यूनतम मजदूरी, न ओवरटाइम भुगतान, न मातृत्व अवकाश, न ही काम के दौरान
हुई दुर्घटना की क्षतिपूर्ति। वे ई॰एस॰आई॰, पी॰एफ॰ या सामूहिक सौदेबाजी के दायरे से बाहर
हैं।
इसके परिणामस्वरूप, उन्हें कम आय, सामाजिक अलगाव, अनियमित काम के
घंटे, अत्याधिक काम, नींद की कमी और थकान का सामना करना पडता है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन (डब्लू॰एच॰ओ॰) और आई॰एल॰ओ॰ (2021) की एक संयुक्त
रिपोर्ट के अनुसार, गिग कार्य न केवल खराब स्वास्थ्य का कारण बनता
है, बल्कि इससे कर्मचारी मृत्यु दर भी बढ़ी है।
जिस ’लचीलेपन’ की बात की जाती है, वह व्यवहार में एक भ्रम है। निर्वाह योग्य आय
कमाने के लिए, कर्मचारी को जितना हो सके उतना काम स्वीकार करना
पडता है। काम मना करने पर उन्हें दण्डित किया जाता है या फिर उन्हें काम मिलना बंद
हो सकता है। असल में, ’लचीलापन’ का मतलब है कि कर्मचारी को कंपनी की
जरूरत के अनुसार हमेशा उपलब्ध रहना होता है, लेकिन उसे काम केवल थोड़़े-थोड़े अंतराल पर ही मिलता
है। उदाहरण के लिए, ओला के ड्राइवरों को राईड अस्वीकार करने पर जुर्माना
लगता है।
ई-ग्रॉसरी और फूड प्लेटफॉर्म्स पर 10-30 मिनट की डिलीवरी ने दबाव और बढ़ा दिया है। कर्मचारी
को खराब मौसम या स्थितियों में भी ऑर्डर स्वीकार करना पडता है ताकि उनकी रेटिंग खराब
न हो। रेटिंग सिस्टम भी उनकी समस्या बढाता है, क्योंकि ग्राहक सीधे कर्मचारी
को रेट करते हैं और कंपनी की गलती का भी दोष कर्मचारी को ही भुगतना पड़ता है।
इन हालातों से कर्मचारी के सोने के घंटे, दिनचर्या और काम व जिंदगी
का संतुलन बुरी तरह प्रभावित होता है। उन्हें लगातार नए काम की तलाश में रहना पडता
है और हर समय उपलब्ध रहना पडता है। काम न मिलने पर बेरोजगारी भत्ता जैसा कोई सहारा
नहीं होता।
यह दावा कि गिग कार्य अतिरिक्त आय का स्रोत है, गलत साबित होता
है। पी॰यू॰डी॰आर॰ के एक सर्वे (2021) के मुताबिक, ज्यादातर कर्मचारी
के लिए यही उनकी मुख्य आय और रोजी-रोटी का जरिया है। ओला/उबर ड्राइवरों की औसत मासिक
आय रु॰ 25,000-30,000 और स्विगी, जोमेटो, अमेजोन के डिलीवरी
कर्मचारी की रु॰ 14,000-15,000 है, और इसमें से गाड़ी का किराया, ईंधन और रख रखाव
का खर्च निकालना पड़ता है, जिसके बाद असली आमदनी बहुत कम बचती है। ऐसे में
लचीलेपन की बात करना बेमानी है।
’फ्रीलांसर’ या ’स्वतंत्र ठेकेदार’ का लेबल भी
गुमराह करने वाला है। इस लेबल के कारण उन्हें न्यूनतम मजदूरी और स्वास्थ्य बीमा जैसे
मौलिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है। कंपनियाँ साफ कहती हैं कि वे नियोक्ता नहीं हैं
(जैसे उबर का कहना है कि ड्राइवर ’किसी भी तरह से कर्मचारी नहीं है’), लेकिन फिर भी
वे भुगतान की दर, काम के घंटे तय करती हैं और काम मना करने पर जुर्माना
लगाती हैं।
इससे अवैतनिक काम के घंटे बढ़े हैं। कर्मचारी को 4-4 घंटे बिना पैसों
का इंतजार करना पड़ सकता है, 14-14 घंटे की शिफ्ट करनी पड़ सकती
है और उन्हें पूरी तरह से नौकरी की असुरक्षा का सामना करना पड़़ता है। अर्बन कंपनी की
ब्य्य्टीशियनों को कंपनी के उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है और उत्पीड़न का
कोई सहारा नहीं होता। दुर्घटना की स्थिति में डिलीवरी करने वालों के पास कोई बीमा कवर
नहीं होता। कंपनियाँ अक्सर कर्मचारी के बजाय ग्राहक का पक्ष लेती हैं, चाहे गलती किसी
की भी हो।
आई॰एफ॰ए॰टी॰ और आई॰टी॰एफ॰ के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि कई ड्राइवर दिन में
16-20 घंटे चक्के के पास बिताते हैं, जिससे पीठ दर्द, कब्ज, लिवर की समस्या, कमर दर्द और गर्दन
में दर्द जैसी बीमारियाँ होती हैं। उनके पास दुर्घटना, स्वास्थ्य या
चिकित्सा बीमा तक नहीं है।
गिग कार्य की अस्थायी प्रकृति कर्मचारी और नियोक्ता के बीच लंबे समय के रिश्ते
और विश्वास को भी खत्म कर देती है। गिग कार्य के बढ़ने से पूर्णकालिक कर्मचारियों की
नौकरियाँ भी खतरे में पड़ रही हैं, क्योंकि कंपनियाँ सस्ते गिग कर्मचारी को तरजीह
देने लगी हैं।
सरकार द्वारा अब तक उठाए गए कदम केवल खानापूर्ति हैं। गिग कर्मचारी को पीस रेट
कर्मचारी के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए और उन्हें न्यूनतम मजदूरी, 8-घंटे का कार्य
दिवस और अन्य कानूनी लाभों की गारंटी दी जानी चाहिए। देश भर में गिग कर्मचारी के विरोध
प्रदर्शन हो चुके हैं, लेकिन इन व्यवस्थागत समस्याओं के समाधान के लिए
एक स्थायी, बड़े पैमाने पर और संगठित आंदोलन की सख्त जरूरत
है।