Wednesday 12 December 2018

5 राज्यो ने चुनावी नतीजों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी


पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने आरएसएस-बीजेपी के विशेष रूप से मोदी-शाह जोड़ी के अहंकार पर एक थप्पड़ जड़ा है। शायद उन्होंने इसे पहले समझ लिया था और अपने 2014 के चुनावी वायदों को पूरा न करने के बारे में अच्छी तरह से जानते थे। अब जबकि 2019 के आम चुनाव करीब आ रहे हैं, ये चुनाव बहुत महत्वपूर्ण थे। शायद दोनों को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने मुद्दे बदल् दिये । विकास के बजाय, 'हिंदुत्व' और गाली गलौज जैसी भाषा प्रचार में आगे रहे। नेहरू, जगहो के नाम बदलने, मंदिर आदि मुख्य मुद्दे बन गयेउनकी निराशाओं को इस तथ्य से देखा जा सकता है कि इन चुनावों से ठीक पहले, और बड़े खेल से छह महीने पहले, उन्होंने ऑगस्टा डील के दलाल को बुलाया, माल्या पर शिकंजासा, वाड्रा आदि पर छापे मारे। हमने देखा है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, कल्याण सिंह की अगुवाई वाली भाजपा सरकार का पूर्ण बहुमत था पर उसके बाद पूर्ण बहुमत के साथ वापस आने में लगभग 25 साल लग गए। भारत के लोगों द्वारा कट्टर और हिंसक सांप्रदायिकता को हमेशा खारिज कर दिया गया है। शायद, यही कारण है कि, योगी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया गया था क्योंकि हिंदुओं के समझदार हिस्सा उनके लिए वोट नहीं करता।
अगर आपको याद है कि जब दिल्ली और बिहार के नतीजे आए, तो भक्तों ने जनता को ही खारिज करना शुरू कर दिया था और ऐसी प्रतिक्रियाएं अब भी अपेक्षित ही होंगी। पुराना मजाक "जनता ने हममें विश्वास खो दिया है,  इसलिए चलो जनता को भंग कर दें और नए का चयन करें" उनसे बहुत उपयुक्त है। वे इतने अंधे हैं कि वे अपने भगवान और उसकी पार्टी में कोई गलती नहीं देख सकते हैं। मुझे याद है कि एक भक्त नोटबंदी का जिक्र कर रहा था और कहा कि उन दिनों में उसे नकद या बैंक कतारों में कोई समस्या नहीं हुई। वह सच्चा भक्त था क्योंकि अधिकांश नोटबंदी व भाजपा समर्थक इसे 'देश के हित' के लिए समर्थन दे रहे थे लेकिन हो रही असुविधा को स्वीकार किया गया था। ऐसे लोग की तरह अब भी अपनी ही दुनिया में रहेगें और कुछ आत्मनिरीक्षण करने के बजाय लोगों को दोष देंगे।
पर लोगों को बार-बार मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है। और मीडिया के बावजूद, सभी सरकारी और सांविधिक निकायों के खुले आम दुरुपयोग के बावजूद, परिणाम भक्तों की पसंद कानहीं आया। बढ़ती बेरोजगारी, किसानों का संकट, जीएसटी, नोटबंदी, आवश्यक वस्तुओं  कीमतों में वृद्धि, निर्बाध बढ़ता भ्रष्टाचार,  बढ़ती विषमतायें, असंतुष्ट आदिवासियों, श्रमिकों, शिक्षा, मानव अधिकारों पर हमलों का परिणाम ऐसा ही आना था। देखिये आगे क्या होता है, क्योंकि छह महीने तो कुछ समय है और मुख्य मुद्दों से भटकाकर मंदिरों जैसे कृत्रिम मुद्दे  और सांप्रदायिक हिंसा कुछ फल दे सकते हैं।
हालांकि, गेंद एक कोर्ट में दूसरे कोर्ट पर गई है पर दोनों एक ही खेल के खिलाड़ी हैं। इसलिए कुछ भले की उम्मीद रखना खुद को बहलाना होगा। राजस्थान और मध्य प्रदेश के बारे में अच्छी बात यह है कि कांग्रेस केवल कगार पर है। ऐसी सरकारों पर हमेशा जनता का दबाव होता है और उनके लिए बेहतर होता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि  जबानी जमाखर्च के अलावा, कांग्रेस के पास आर्थिक मोर्चे पर कोई अलग नीति नहीं है। असल में, सांप्रदायिकता पर भी नहीं है। उसने खुद को खुले तौर पर  नरम हिंदुत्व पार्टी के रूप में प्रोजेक्ट करने की कोशिश की है (जो पहले गुप्त रूप से करती थी)। भारत के लोगों के लिए प्रसन्न होने के लिए बहुत कम मौका है, उन्हें सरकार के रंग बदलने बावजूद बुनियादी मुद्दों पर अपने संघर्ष जारी रखना होगा।
यह भी प्रतिबिंबित होता  है शासक वर्ग व  कॉर्पोरेट क्षेत्र के एक हिस्से ने फिर से कांग्रेस का समर्थन करना शुरू कर दिया है। राहुल गांधी के बेहतर दिखने वाले भाषण इसी तरह के संकेतक हैं। पप्पू और फेंकू दोनों की बौद्धिक क्षमता समान है, लेकिन मीडिया प्रचार के कारण, किसी के मूर्खतापूर्ण शब्दों को उजागर नहीं किया गया था। लेकिन कॉरपोरेट बैकिंग के साथ अब अलग बात है। असेंबली के परिणाम के बाद राहुल साक्षात्कार काफी परिपक्व था, और लगता है अच्छी तरह से प्रशिक्षित किया गया है।
एक अच्छी बात है कि नोटा के प्रतिशत (छत्तीसगढ़ में 2%, एमपी में 1.4%, मिजोरम में 0.5%, राजस्थान में 1.3% और तेलंगाना में 1.1%) बढ़ रहा है। यह इन सभी शासक वर्ग पार्टियों से बढ़ते असंतोष को दिखाता है। इस असंतोष का जनता के जुझारू संघर्षों में तब्दील किया जाना चाहिए क्योंकि केवल लूटने वाले वाला चेहरा बदलना कोई समाधान नहीं है।

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